Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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है कि हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कार्य / क्रिया / प्रवृत्ति / कर्म अपना संस्कार छोड़ जाता है । जिसे नैयायिक - वैशेषिक धर्म-अधर्म के नाम से, योग कर्माशय के नाम से, बौद्ध अनुशय, वेदान्त वासना आदि के नाम से पुकारते हैं । यह संस्कार आदि फलकाल तक स्थायी रहते हैं और क्रिया / कर्म / प्रवृत्ति क्षणिक होती है । परन्तु इन दोनों का कुछ ऐसा संबन्ध जुड़ा हुआ है कि संस्कार आदि से प्रवृत्ति और प्रवृत्ति आदि से संस्कार आदि की परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है । इसी का नाम संसार हैं ।
इस संबन्ध में बौद्धदर्शन का अभिमत है - अविद्या के होने से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नाम और रूप, नाम और रूप से छह आयतन, छह आयतनों से स्पर्श स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उपादान से भव भव से जन्म, जन्म से बुढ़ापा, मरना, शोक, रोना-पीटना, दुःख, बेचैनी, परेशानी होती है । इस प्रकार दुःखों की परंपरा का प्रारम्भ कब और कहाँ से हुआ ? इसका पता नहीं है ।
योगदर्शन में लिखा है - पांच प्रकार की वृत्तियां होती हैं । जो क्लिष्ट भी होती हैं और अक्लिष्ट भी होती हैं । क्लेश की कारणभूत वृत्तियों को क्लिष्ट कहते हैं और वे कर्माशय के संचय के लिये आधारभूत होती हैं । क्लिष्ट और अक्लिष्ट जातीय संस्कार वृत्तियों द्वारा होते हैं और वृत्तियां संस्कार से होती हैं । इस प्रकार से वृत्ति और संस्कार का चक्र सर्वदा चलता रहता है ।
सांख्यकारिका का संकेत है- धर्म और अधर्म को संस्कार कहते हैं । इसी के निमित्त से शरीर बनता है । सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होने पर धर्मादिक पुनर्जन्म करने में समर्थ नहीं रहते है, फिर भी संस्कार की वजह से पुरुष संसार में रहता है । जैसे कुलाल के दंड का सम्बन्ध दूर हो जाने पर भी संस्कार के वश से चक्र घूमता रहता है । क्योंकि फल दिये बिना संस्कार का क्षय नहीं होता है ।
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