Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ प्रस्तावना श्रीवर्द्धमानमानम्य जितघातिचतुष्टयम् । वक्ष्येऽहं नयविस्तारमागमज्ञानसिद्धये ॥ आगे नय की लक्षणपरक व्युत्पत्ति देकर उसके समर्थन में एक गाथा उद्घृत की है जो वीरसेन स्वामी की धवला टीका के प्रारम्भ भी उद्घृत है नानास्वभावेभ्यो व्यावृत्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयतीति नयः । उक्तं च- णयदित्ति णओ भणिदो बहूहिं गुणपज्जएहिं जं दव्वं । परिणामखेतकालंतरेसु अविणट्ठसब्भावं ॥ आगे 'नयचक्र' के अनुसार गद्य और श्लोकों में नय के भेद-प्रभेद संस्कृत में दिये गये हैं, बीच-बीच में 'उक्तं च' करके नयों के लक्षण भी श्लोक रूप में उद्धृत हैं; किन्तु वे उद्धृत श्लोक किस ग्रन्थ से लिये गये हैं, यह ज्ञात नहीं हो सका । इसके पश्चात् इसी संस्करण में दूसरा 'नयचक्र' मुद्रित है । यह प्रथम से बड़ा है। इसका मंगलश्लोक इस प्रकार है श्रीवर्धमानार्कमानम्य मोहध्वान्तप्रभेदिनम् । गाथार्थस्याविरोधेन नयचक्रं मयोच्यते ॥ इसमें गाथा के अर्थ के अविरुद्ध नयचक्र को कहने की प्रतिज्ञा की गयी है । यहाँ गाथा से आशय देवसेन कृत 'नयचक्र' की गाथाओं से है । उनको ही यहाँ संस्कृत श्लोकों में बद्ध किया गया है। यथा Jain Education International १७ दट्ठूण पडिबिंबं भवदि हु तं चेव एस पज्जाओ । सज्जाइ असब्भूओ उवयरिओ णिययजाति पज्जाओ ॥ प्रतिबिम्बं समालोक्य यस्य चित्रादिषु स्थितम् । तदेव तच्च यो ब्रूयात् सद्भूतो ह्युदाहृतः ॥ यं जीवमजीवं तं पिय गाणं खु तस्स विसयादो । जो भइ एरिसत्थं ववहारो सो असम्भूदो ॥ जीवाजीवमपि ज्ञेयं ज्ञानज्ञानस्य गोचरात् । उच्यते येन लोकेऽस्मिन् सोऽसद्भूतो निगद्यते ॥ इस तरह यद्यपि 'नयचक्र' की गाथाओं को श्लोकबद्ध करके यह 'नयचक्र' रचा गया है, तथापि यह केवल उसका अनुवाद ही नहीं है। इसमें ऐसा भी उपयोगी विषय है जो देवसेन के गाथा 'नयचक्र' में नहीं है । उक्त मंगल श्लोक के पश्चात् ही उसमें एक श्लोक इस प्रकार है जिनपतिमतमह्यां रत्नशैलादपापा दिह हि समयसाराद् बुद्धबुद्ध्या गृहीत्वा । प्रहतघनविमोहं सुप्रमाणादि रत्नं श्रुतभुवनसुदीपं विद्धि तद्व्यापनीयम् ॥ अर्थात् जिनपतिमत (जैनमत) एक पृथ्वी है । उसमें 'समयसार' नामक रत्नों का पहाड़ है। उससे रत्न लेकर इस श्रुतभुवनदीप नयचक्र की रचना की गयी है। फलतः प्रारम्भ में 'समयसार' की मूलभूत तीन गाथाओं को उद्धृत करके ग्रन्थकार ने संस्कृत गद्य में उनकी व्याख्या करते हुए व्यवहारनय की अभूतार्थता और निश्चयनय की भूतार्थता पर अच्छा प्रकाश डाला है। इसमें तीन अध्याय हैं । अध्यायों की अन्तिम पुष्पिका में लिखा है 'इति देवसेनभट्टारकविरचिते व्योमपण्डितप्रतिबोधके श्रुतभुवनदीपे नयचक्रे'... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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