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प्रस्तावना
१५
छह द्रव्यार्थिक के भेद हैं और शेष छह पर्यायार्थिक के भेद हैं। इनमें से प्रथम विधिनय का व्यवहारनय में, दूसरे, तीसरे और चतुर्थ का संग्रहनय में, पाँचवें और छठे का नैगमनन्य में, सातवें का ऋजुसूत्रनय में, आठवें और नवें का शब्दनय में, दसवें का समभिरूढ़ में और ग्यारहवें-बारहवें का एवम्भूतनय में अन्तर्भाव किया गया है। इस प्रकार की शैली श्वेताम्बर-परम्परा में भी अन्यत्र नहीं है, 'नयचक्र' में ही है। इस शैली का कुछ आभास आचार्य समन्तभद्र के नीचे लिखे पद्य में मिलता है
विधेय वार्यं चानुभयमुभयं मिश्रमपि तद् विशेषैः प्रत्येक नियमविषयैश्चापरिमितैः। सदान्योन्यापेक्षैः सकलभुवनज्येष्ठगुरुणा त्वया गीतं तत्त्वं बहुनयविवक्षेतरवशात् ॥
-बृ. स्वयभू. ११८ नयचक्र में पूर्व-पूर्व नयों के मत का खण्डन और अपने-अपने मत का पोषण करने के लिए सभी नयवादों को उपस्थित किया गया है। और इस तरह विधि आदि नयों के निरूपण के बहाने से अपने समयवर्ती मुख्य दार्शनिकों के मत का चिन्तन किया गया है तथा एकान्तवाद को त्याग कर स्याद्वाद का ही आश्रय लेने का विधान किया गया है। उसका प्रथम गाथासूत्र है
'विधिनियमभङ्गवृत्तिव्यतिरिक्तत्वादनर्थकवचोवत।
जैनादन्यच्छासनमनृत्तं भवतीति वैधर्म्यम्।' अर्थात् जैन शासन से भिन्न अन्यशासन उत्पाद (विधि), व्यय (भंग) और ध्रौव्य (नियम) से रहित होने से अनर्थक वचनों के तुल्य हैं। इसके रचयिता का नाम मल्लवादी है। श्वेताम्बर ग्रन्थों के उल्लेखों के अनुसार उनका समय वीर नि.सं.
.सं. ४१४ माना जाता है, किन्तु सन्मति के कर्ता सिद्धसेन का समय पं. सुखलालजी ने विक्रम की पाँचवीं शताब्दी निर्धारित किया है और मल्लवादी ने सिद्धसेन के सन्मति पर टीका लिखी थी; इसका निर्देश आचार्य हरिभद्र ने किया है। और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने विशेषावश्यक भाष्य में सिद्धसेन और मल्लवादी के उपयोगाभेद की चर्चा विस्तार से की है तथा उक्त ग्रन्थ वि.सं. ६६६ में वलभी में समाप्त हुआ था। अतः पं. सुखलाल जी ने मल्लवादी को विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में माना है। अतः अकलंकदेव के द्वारा उनके 'नयचक्र' का उल्लेख किया जाना सम्भव है, क्योंकि विक्रम संवत् ७०० में अकलंक का बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ होने का उल्लेख मिलता है।
पुरातन काल में उसके सिवाय 'नयचक्र' नाम का कोई अन्य ग्रन्थ नहीं मिलता और उत्तर काल में जो नयचक्र मिलते हैं, उनका उल्लेख अकलंक और विद्यानन्द के द्वारा किया जाना सम्भव नहीं है।
देवसेन का नयचक्र और आलापपद्धति
देवसेन के 'नयचक्र' में केवल ८७ गाथाएँ हैं। देवसेन ने अपना 'दर्शनसार' धारा में निवास करते हुए वि.सं. ६६० में रचकर समाप्त किया था। अतः यदि वही देवसेन 'नयचक्र' के कर्ता हैं तो 'नयचक्र' विक्रम की दसवीं शताब्दी के अन्त में रचा गया है। अपने 'नयचक्र' पर उन्होंने 'आलापपद्धति' की भी रचना की है। दोनों का विषय समान है। 'नयचक्र' प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है और 'आलापपद्धति' संस्कृत गद्य में निबद्ध है। उसके प्रारम्भ में लिखा है
'आलापपद्धतिर्वचनरचनानुक्रमेण नयचक्रस्योपरि उच्यते'। फिर प्रश्न किया गया है कि उसकी क्या आवश्यकता है? अर्थात् 'नयचक्र' की रचना करने के बाद 'आलापपद्धति' की रचना किस प्रयोजन से की
१. भारतीय विद्या भा., ३, अंक ५ में 'श्री सिद्धसेन दिवाकरनां समयनी प्रश्न' लेख। २. "विक्रमार्क शकाब्दीय सत सप्त प्रमाजुषि । काले कलंकयतिनो बौद्धैर्वादो महानभूत्' ।
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