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प्रस्तावना
का स्थापन करना, अणुमात्र भी अन्य कल्पना न करना स्वाश्रित है। उसे ही मुख्य कथन कहते हैं। उसके ज्ञान से शरीर आदि परद्रव्य में एकत्वश्रद्धानरूप अज्ञान भावना का अभाव होकर भेदविज्ञान होता है तथा समस्त परद्रव्यों से भिन्न अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप का अनुभव होता है। तथा पराश्रित कथन को व्यवहार कहते हैं। किंचित् मात्र कारण पाकर अन्यद्रव्य के भाव को अन्यद्रव्य में आरोपित करना पराश्रित कहलाता है। पराश्रित कथन को उपचार कथन या गौण कथन कहते हैं। इसके जानने से शरीर आदि के साथ सम्बन्धरूप संसार-दशा का ज्ञान होता है। उसका ज्ञान होने से संसार के कारण आस्रव और बन्ध को त्याग कर मुक्ति के कारण संवर और निर्जरा में प्रवृत्ति करता है। अज्ञानी इनको जाने बिना ही शुद्धोपयोगी होना चाहता है। अतः वह व्यवहार को छोड़ बैठता है और इस तरह पापाचरण में पड़कर नरकादि में दुःख उठाता है। अतः व्यवहार कथन को भी जानना आवश्यक है। इस तरह दोनों नयों का ज्ञान होना आवश्यक है।
सिद्धान्त में तथा अध्यात्म में प्रवेश के लिए नयज्ञान बहुत आवश्यक है, क्योंकि दोनों नय दो आँखें हैं। और दोनों आँखों से देखने पर ही सर्वावलोकन होता है। एक आँख से देखने पर केवल अवलोकन होता है। इसी से देवसेन ने नयचक्र (गा. १०) में कहा है-जो नयरूपी दृष्टि से विहीन हैं, उन्हें वस्तु के स्वरूप का बोध नहीं हो सकता। और वस्तु के स्वरूप को जाने बिना सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है?
नयविषयक साहित्य
यों तो जैन परम्परा में नय की चर्चा साधारणतया पायी ही जाती है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि 'तत्त्वार्थसूत्र' के प्रारम्भ में 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्र की रचना के पश्चात् ही जैन परम्परा में प्रमाण और नय की विशेष रूप से चर्चा का अवतार हुआ है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में नयों के केवल सात भेद गिनाये हैं। उसमें द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक भेद नहीं हैं। हाँ, 'तत्त्वार्थसूत्र' के व्याख्याग्रन्थ 'उमास्वातिभाष्य' और 'सर्वार्थसिद्धि' में उनकी चर्चा है तथा नय और उसके भेदों के लक्षण दिये हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक तथा निश्चय और व्यवहारनय से वस्तुस्वरूप का विवेचन अवश्य किया है, किन्तु उनके स्वरूप के सम्बन्ध में विशेष कुछ नहीं कहा है। हाँ, व्यवहारनय को अभूतार्थ और निश्चयनय को भूतार्थ अवश्य कहा है। (देखो, समयसार गा. ११)।
आचार्य समन्तभद्र ने अपने 'आप्तमीमांसा' तथा 'स्वयंभूस्तोत्र' में नय की चर्चा की है तथा नय के साथ उपनय का भी निर्देश किया है (आ.मी. १०७)। तथा सापेक्ष नयों को सम्यक् और निरपेक्ष नयों को मिथ्या कहा है (१०८)। किन्तु नय और उपनय के भेदों की चर्चा नहीं की है।
आचार्य सिद्धसेन ने अपने ‘सन्मतिसूत्र' में नयों का क्रमबद्ध कथन किया है और द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक को मूल नय बतलाकर शेष को उन्हीं दोनों का भेद बतलाया है तथा दोनों नयों की मर्यादा भी बतलायी है, उनके भेदों का भी कथन किया है; किन्तु नैगमनय को मान्य नहीं किया। इसी से वे षडूनयवादी कहलाते हैं।
उन्होंने कहा है-जितने वचन के मार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं, उतने ही परसमय हैं (३।४७)। विभिन्न दर्शनों का नयों में समन्वय करते हुए कहा है-सांख्यदर्शन द्रव्यास्तिक का वक्तव्य है, बौद्धदर्शन परिशुद्ध पर्यायनय का विकल्प है। यद्यपि वैशेषिकदर्शन में दोनों नयों से प्ररूपणा है, फिर भी वह मिथ्या है; क्योंकि दोनों नय परस्पर में निरपेक्ष हैं (३।४८-४६)। इस तरह उन्होंने भी निरपेक्ष नयों को मिथ्या कहा है।
सिद्धसेन के पश्चात् जैन प्रमाणव्यवस्था के व्यवस्थापक अकलंकदेव ने लघीयस्त्रय प्रकरण में नय प्रवेश
तर्गत तथा सिद्धिविनिश्चय के अन्तर्गत अर्थनयसिद्धि और शब्दनयसिद्धि नामक प्रकरणों में नयों के सात भेदों के साथ उनके आभासों नैगमाभास आदि का विवेचन करते हुए इतर दर्शनों का समावेश किया है।
आचार्य अकलंकदेव ने अपने न्यायविनिश्चय के अन्त में लिखा है
इष्टं तत्त्वमपेक्षातो नयानां नयचक्रतः ॥३१॥
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