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नयचक्र
जाती है? तो उत्तर दिया गया है-द्रव्य लक्षण की सिद्धि के लिए और स्वभाव की सिद्धि के लिए। इन दोनों काही कथन नयचक्र में नहीं है। अतः 'आलापपद्धति' के प्रारम्भ में द्रव्य, गुण, पर्याय और स्वभाव का कथन करके 'नयचक्र' में प्रतिपादित नय और उपनय के भेदों का भी कथन किया गया है । उपलब्ध साहित्य में केवल नय को लेकर रचे जानेवाले ग्रन्थ देवसेनकृत 'नयचक्र' और 'आलापपद्धति' ही हैं। इनके सिवाय इस तरह के किसी अन्य ग्रन्थ के इससे पूर्व रचे जाने का कोई भी उल्लेख दिगम्बर - परम्परा में हमारे देखने में नहीं आया । इनके पश्चात् ही 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' रचा गया है, जिसके विषय में आगे प्रकाश डाला जाएगा।
अब प्रश्न यह होता है कि क्या देवसेन ने अपने इस ग्रन्थ का नाम 'नयचक्र' मल्लवादी प्रणीत 'नयचक्र' नाम की अनुकृति पर रखा है ? किन्तु देवसेन के 'नयचक्र' को देखकर तो ऐसा प्रतीत नहीं होता । हाँ, आ. अकलंक और आ. विद्यानन्द के द्वारा उल्लिखित 'नयचक्र' नाम की अनुकृति सम्भव है। अकलंकदेव और विद्यानन्द के सिवाय अन्य किसी दिगम्बर आचार्य ने तो 'नयचक्र' का निर्देश नहीं किया । आ. अमृतचन्द्र ने अपने 'पुरुषार्थसिद्धियुपाय' के प्रारम्भ में 'नयचक्र' शब्द का प्रयोग करके उसे अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाला बतलाया है । अतः यहाँ नय के साथ चक्र शब्द अस्त्रपरक प्रयुक्त हुआ है। मल्लवादी ने चक्के के अर्थ में चक्र शब्द का प्रयोग किया है। इसी से जैसे गाड़ी के चक्के में अर (डण्डे ) रहते हैं, वैसे ही उनके 'नयचक्र' में बारह अर हैं । अतः आ. अमृतचन्द के द्वारा प्रयुक्त 'नयचक्र' भी उसका प्रतिरूप नहीं है। तब दूसरा प्रश्न होता है कि देवसेन ने अपने 'नयचक्र' में नय के जिन भेद-प्रभेदों का कथन किया है, उनका आधार क्या है ?
'नयचक्र' प्रतिपादित भेदों का आधार
नय के दो मूल भेद द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक तथा उनके भेद सात नय हैं जो अखण्ड जैन- परम्परा की देन हैं - इसमें कोई मतभेद नहीं है। हाँ, सिद्धसेन षड्नयवादी हैं, नैगम को वे पृथक्नय स्वीकार नहीं करते; किन्तु यह उनकी व्यक्तिगत मान्यता है । जैन परम्परा सात नयों को ही स्वीकार करती है ।
आ. समन्तभद्र ने अपने 'आप्तमीमांसा' (का. १०७) ग्रन्थ में 'नय' के साथ 'उपनय' शब्द का भी प्रयोग किया है। आ. अकलंकदेव ने अपनी 'अष्टशती' में 'संग्रहादिर्नयः तच्छाखाप्रशाखात्मोपनयः' लिखा है- अर्थात् संग्रह आदि नय हैं और उसकी शाखा प्रशाखाएँ उपनय हैं। इससे पूर्व की कारिका १०४ की 'अष्टशती' में उन्होंने लिखा है
'द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक-प्रविभागवशान्नैगमादयः । शब्दार्थनया बहुविकल्पा मूलनयद्वयशुद्ध्यशुद्धिभ्याम् ॥'
इस अष्टशती की व्याख्या 'अष्टसहस्री' में आ. विद्यानन्द ने इसके साथ ' शास्त्रान्तरे प्रोक्ता इति सम्बन्धः' इतना सम्बन्ध वाक्य जोड़ा है।
आचार्य विद्यानन्द ने इसका अर्थ करते हुए नैगमनय के तो अनेक भेद किये हैं और अन्त में लिखा है
'इति मूलनयद्वयशुद्ध्यशुद्धिभ्यां बहुविकल्पा नया नयचक्रतः प्रतिपत्तव्याः ।'
इस प्रकार दो मूलनयों की शुद्धि और अशुद्धि से नयों के बहुत भेद नयचक्र से जानना चाहिए। इन भेदों में देवसेन के द्वारा प्रतिपादित भेद नहीं हैं। देवसेन ने द्रव्यार्थिक के दस भेद, पर्यायार्थिक के छह भेदों के सिवाय सद्भूत, असद्भूत और उपचरित के क्रम से दो, तीन और तीन भेद भी गिनाये हैं। ये सब भेद इससे पूर्व के साहित्य में देखने को नहीं मिलते।
भट्टारक देवसेनकृत अन्य नयचक्र
सन् १६४६ में पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, शोलापुर ने भी आचार्य देवसेन कृत एक 'नयचक्र' प्रकाशित किया था। इसका सम्पादन कुमार श्रमण क्षुल्लक सिद्धसागर ने किया है। इस संस्करण में दो 'नयचक्र' मुद्रित हैं। प्रथम के ऊपर छपा है - देवसेन भट्टारक विरचित नयचक्र । मंगलाचरण इस प्रकार है
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