Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 13
________________ प्रस्तावना जिससे वस्तुतत्त्व का निर्णय किया जाता है-उसे सम्यक्रूप से जाना जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण के विषय को प्रमेय कहते हैं। प्रमेय की व्यवस्था प्रमाणाधीन है, इसी से सभी दार्शनिक प्रमाण को मान्य करते हैं। प्रत्येक दर्शन में प्रमाणशास्त्र की स्थिति महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। प्रमाणशास्त्र को न्यायशास्त्र भी कहते हैं। प्रमाण स्वरूप, भेद, विषय, फल आदि उसके मुख्य चर्चनीय विषय हैं। जैनदर्शन में भी प्रमाणशास्त्र का अपना विशिष्ट स्थान है और अकलंकदेव को उसका प्रतिष्ठाता माना जाता है (देखो-'जैनों की प्रमाणमीमांसापद्धति का विकासक्रम' शीर्षक पं. सुखलालजी का लेख, अनेकान्त वर्ष १, पृ. २६३)। किन्तु जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। वह एक ही वस्तु में परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अस्तित्व-नास्तित्व, एकत्व-अनेकत्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि धर्मों की सत्ता स्वीकार करता है। जो वस्तु एक दृष्टि से अस्तिस्वरूप, एकस्वरूप और नित्यस्वरूप है वही वस्तु दूसरी दृष्टि से नास्तिस्वरूप, अनेकान्तस्वरूप और अनित्यस्वरूप भी है। जैसे एक ही व्यक्ति एक ही समय में पिता भी है, पुत्र भी है, भाई भी है, भतीजा भी है, मामा भी है, भानजा भी है, श्वसुर भी है, जामाता भी है। अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है और अप पिता की अपेक्षा पुत्र है। अपने भाई की अपेक्षा भाई है और अपने पिता के भाई की अपेक्षा भतीजा है। अपने भानजा की अपेक्षा मामा है और अपने मामा की अपेक्षा भानजा है। अपने जामाता की अपेक्षा श्वसुर है और अपने श्वसुर की अपेक्षा जामाता है। इस तरह ये सब विरोधी प्रतीत होनेवाले सम्बन्ध एक ही व्यक्ति में सम्बन्धी-भेद से रहते हैं। इसी तरह वस्तुधर्मों की भी व्यवस्था है। न कोई वस्तु सर्वथा सत् है और न सर्वथा असत् है, न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य, न सर्वथा एक ही है और न सर्वथा अनेक। किन्तु सत् भी है, असत् भी है, नित्य भी है, अनित्य भी है, एक भी है, अनेक भी है। इस तरह की अनेकान्तात्मक या अनेक धर्मात्मक वस्तु प्रमाण का विषय है। ___ वस्तु के अनेक धर्मात्मक होने पर भी ज्ञाता किसी एक धर्म की मुख्यता से ही वस्तु को ग्रहण करता है। जैसे व्यक्ति में अनेक सम्बन्धों के होते हुए भी प्रत्येक सम्बन्धी अपनी दृष्टि से ही उसे पुकारता है। उसका पिता उसे पुत्र कहकर पुकारता है, तो उसका पुत्र उसे पिता कहकर पुकारता है। किन्तु व्यक्ति न केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही है। यदि वह केवल पिता ही हो, तो अपने पुत्र की तरह अपने पिता का भी पिता कहलाएगा। या यदि वह केवल पत्र ही हो, तो अपने पिता की तरह अपने पुत्र का भी पुत्र कहलाएगा। यही स्थिति वस्तु के विषय में भी जाननी चाहिए। वस्तु का वस्तुत्व दो बातों पर कायम है। प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप को अपनाये हुए है और अपने से भिन्न अनन्त वस्तुओं के स्वरूप को नहीं अपनाये हुए है। तभी उसका वस्तुत्व कायम है। यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो वह वस्तु नहीं रहेगी। जैसे यदि घट अपने स्वरूप को न अपनाये, तो वह गधे के सींग की तरह अवस्तु कहलाएगा। अपने स्वरूप को अपनाकर भी यदि वह अपने से भिन्न पट आदि वस्तुओं के स्वरूप को भी अपनाये, तो घट-पट में कोई भेद नहीं रहेगा। अतः घट घट ही है और घट पट नहीं है, इन दो बातों पर ही घट का अस्तित्व बनता है। इसे ही कहते हैं घट है भी और नहीं भी है। अपने स्वरूप से है और अपने से भिन्न स्वरूप से नहीं है। इसी तरह घट नित्य भी है और अनित्य भी है। मिट्टी से घट बना है। घट फूटने पर भी मिट्टी तो रहेगी ही। अतः अपने मूल कारण मिट्टी द्रव्य के नित्य होने से घट नित्य है और घट पर्याय तो नित्य नहीं है, घट के फूटते ही वह मिट जाती है; अतः घट पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। इसी तरह प्रत्येक वस्तु द्रव्यरूप से नित्य है और पर्यायरूप से अनित्य है। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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