________________
दो शब्द
(प्रथम संस्करण, १६७१ से)
द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, देवसेन के नयचक्र और आलापपद्धति के साथ 'नयचक्रादिसंग्रह' के नाम से आज से आधी शताब्दी पहले सेठ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई से प्रकाशित हुआ था। कुछ वर्ष पूर्व जब समाज में नयों की चर्चा ने जोर पकड़ा तो मेरा विचार उसे हिन्दी में अनूदित करने का हुआ, क्योंकि नयों के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप से लिखित ये ही तीन रचनाएँ मेरी दृष्टि में थीं। तब मैंने उनकी हस्तलिखित प्रतियों की खोज की। हस्तलिखित प्रतियों के लिए जयपुर (राजस्थान) के शास्त्रभण्डार जैसे समर्थ शास्त्र भण्डार दि. जैन परम्परा में विरल हैं। स्व. पं. चैनसुखदासजी की प्रेरणा से श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी के मन्त्री स्व. सेठ रामचन्द्र खिन्दूका आदि सज्जनों का ध्यान राजस्थान के जैन- भण्डारों की सुरक्षा की ओर गया और डॉ. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल ने समस्त भण्डारों की सूची- निर्माण के साथ ही हस्तलिखित प्रतियों के संरक्षण, आकलन और संग्रह का कार्य कर डाला।
सन् ६३ में खानिया में चर्चा का आयोजन हुआ। उसमें मैं भी गया था । उसी समय महावीर भवन में नयचक्र की प्रतियों की खोज की। देवसेन के नयचक्र की तो कोई प्रति नहीं मिली, किन्तु माइल्लधवल के द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र की 'नयचक्र' के नाम से अनेक प्रतियाँ प्राप्त हुईं। 'आलापपद्धति' की भी अनेक प्रतियाँ मिलीं। वहीं से प्रति प्राप्त करके मैंने अनुवाद का कार्य प्रारम्भ किया। मेरी इच्छा थी कि तीनों का अनुवाद करूँ । किन्तु जब मैंने देवसेन के नयचक्र का मिलान माइल्लधवल के नयचक्र से किया, तो ज्ञात हुआ कि माइल्लधवल ने अपने गुरु देवसेन के नयचक्र की आधी से अधिक गाथाओं को बिना किसी निर्देश के आत्मसात् कर लिया है। तब मैंने देवसेन के नयचक्र के अनुवाद का विचार त्याग दिया और माइल्लधवल के नयचक्र का ही अनुवाद किया। इसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ था। फलतः अनुवाद में कुछ कठिनाई तो हुई ही। दो गाथाओं के अनुवाद को छोड़ देना भी पड़ा, क्योंकि उनका सारस्य हृदयंगम नहीं कर सका और ज्यों-त्यों करके अर्थपूर्ति करना मुझे रुचा नहीं । गुरुजनों और सहयोगियों से भी परामर्श किया, किन्तु मेरा मन नहीं भरा। अतः उन्हें यों ही छोड़ दिया । विशेषज्ञानी उनका अर्थ कर लेने की कृपा करें। यदि वे मुझे भी सूचित करेंगे तो मैं उनका अनुगृहीत हूँगा । अपने अनुवाद के सम्बन्ध में मैं स्वयं क्या कहूँ? उसके अच्छे-बुरे के निर्णायक तो पाठक ही हो सकते हैं। मैंने अपने ज्ञान के अनुसार शास्त्रीय मर्यादा को रखते हुए प्रत्येक गाथा के अभिप्राय को विशेषार्थ के रूप में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। प्रमाद या अज्ञान से हुई भूलों को पाठक सुधार कर पढ़ें। किन्तु नयों के सम्बन्ध में स्वपक्षाभिनिवेश के कारण बड़ी मतभ्रान्तियाँ हैं । वैसे आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्र व्यवहारनय को अभूतार्थ और हेय कहते हैं, किन्तु आज के कुछ विद्वान् उसे स्वीकार नहीं करते। एक विद्वान् अनुवादक ने आलापपद्धति के अपने अनुवाद में उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के विषय को भी यथार्थ कहा है। जो व्यवहारनय का ही नहीं, किन्तु उपचरित और असद्भूत व्यवहारनय का विषय है, वह कैसे यथार्थ हो सकता है? क्योंकि घी के सम्बन्ध से मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहना यथार्थ नहीं है, औपचारिक है । अतः हमारा मूलानुगामी अनुवाद भी ऐसे महाशयों को अरुचिकर हो सकता है, उसके लिए हम विवश हैं । हमें सिद्धान्त का हनन अभीष्ट नहीं है । सिद्धान्त पक्ष के सामने स्वपक्ष का हमारी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है । स्वमताभिनिवेश की पुष्टि के लिए शास्त्र के अर्थ का अनर्थ करना या उसका अपलाप करना महान् पाप है। उससे बचने में ही हित है, ऐसी हमारी श्रद्धा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org