Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 16
________________ भूमिका श्रीहर्षका पाण्डित्य पहले लिखा जा चुका है कि श्रीहर्षने खण्डनखण्डखाण आदि अपने ग्रन्थों की रचना की। उनमेंसे एकमात्र 'खण्डनखण्डखाद्य' ग्रन्थ ही इनके पाण्डित्यप्राचुर्यप्रदर्शनके लिए पर्याप्त है। इसमें ग्रन्थकारने अपने प्रखर पाण्डिस्थसे अनेकविध तर्को तथा प्रयुक्तियों के द्वारा बड़े उत्तम ढंगसे अद्वैत मतका प्रतिपादन किया है, जिसको देखकर विदानोंको इनके पाण्डित्यप्राचुर्यकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करनी ही पड़ती है। अपने इस भदैतकी झलक श्रीहर्षने नैषधचरितमें मी अद्वैततव इव सत्यतरेऽपि लोकः ( 13365) इत्यादि वचनोंद्वारा प्रदर्शित की है। पष्ठ सर्गको तो स्वयं श्रोहर्षने ही 'खण्डनखण्डखाद्य' ग्रन्थका सहोदर कहा है / यथा 'षष्ठः खण्डनखण्डतोऽपि सहजात्योदतमे तन्महा. काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सोऽगमद्रास्वरः।' (6113 का उत्तराई) न्यायशाखके मुख्याचार्य गोतमको भी इन्होंने नैषधचरितमें 'मुक्तये यः शिलास्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् / / गोतमं तमवेतैव यथा वित्थ तथैव सः॥ (1774) कहकर आड़े हाथों लिया है। सप्तदश सर्गमें चार्वाक मतका अत्यन्त कटुसत्य प्रामाणिक एवं विस्तृत समीक्षण श्रीहर्षको दार्शनिकताका अकाट्य प्रमाण है। वैशेषिक दर्शनका नामान्तर 'उलूक दर्शन' भी है, इसे श्रीहर्षने बड़ो युक्तिसे प्रतिपादित किया है 'ध्वान्तस्य वामोह ! विचारणायां वैशेषिकं चारु मतं मतं मे। औलूकमाहुः खलु दर्शनं तत्क्षम तमस्तस्वनिरूपणाय // ' (22 / 35) अन्य कवियों ने प्रायः अपनी विश्त्ताके प्रदर्शनार्थ ऋतु, प्रभात, चन्द्र आदिका वर्णन अपनी रचनाओं में अप्रासङ्गिक या अत्यधिक रूपमें किया है, किन्तु श्रीहर्षने ऐसा वर्णन कहीं नहीं किया है। जहां कहीं भी इनोंने मूलकथासे पृथक् स्वतन्त्र कथाकी कल्पना की है, वह वहाँपर मशीनके पुर्जेके समान ठीक-ठीक बैठ जाती है और ऐसा आमास होता है कि इसके बिना रचना अधूरी एवं बेकार थी। उदाहरणार्थ नलके पास हंस पहले नलको काटकर ( 1 / 125) अनन्तर कुछ फटकारकर ( 11130-133 ) मी अपनेको छुड़ानेके लिए प्रयत्न करता है, किन्तु असफल होकर करुण-क्रन्दन (1 / 135-142 ) करने कगता है और दया नलसे मुक्ति पाकर वहीं वह अपनी भूल स्वीकार करता हुआ (2 / 8-9) अप्रिय माषणजन्यदोष को प्रत्युपकार द्वारा दूर करने का वचन देता है तथा उसे दैवप्रतिपादित मानने के लिए दोनतापूर्वक विविध प्रकारसे अनुरोध करता है (2 / 10 / 15) / इसके प्रतिकूल जब वही हंस दमयन्तीके पास पहुँचता है तो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए अनेक प्रकारसे आरम-श्लाषा करता हुआ नलके प्रति दमयन्ती को

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