Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 14
________________ भूमिका नल-दमयन्तीकी मूलकथा महामारनके वनपर्वमें नल-दमयन्तीकी कथा आयी है। उसके अनुसार भी इन्द्रादि चारों देवोंने दमयन्तीके पास नलको दूत बनाकर भेजा था। निष्कपट भावसे कार्य दमयन्तीकी स्तुतिद्वारा प्रसन्न होकर नलके लिए आठ वर दिये। स्वर्ग को जाते समय कलिको देवोंने बहुत समझाया, परन्तु वह नलको राज्यभ्रष्ट करनेके लिए दापरको सहायक बनानेकी शर्त कर निषध देशमें गया। बारह वर्ष के बाद नलको मूत्रत्यागके बाद आचमन कर बिना पैर धोये हो सन्ध्योपासन करते देख ( उन्हें अशुचि देख ) अबसरका लाम उठाकर वह उनमें प्रवेश कर गया। तमें अपने माई पुष्करसे पराजित होकर वनमें जाते हुए नलने दमयन्तीका त्याग कर दिया। और चार वर्षके बाद पुनः दोनोंका समागम हुआ। आदि। इस कथामें केवल इतिवृत्तमात्रका वर्णन है, किन्तु नैषधचरितमें श्रीहर्षने उस कथामागका बहुत ही रोचक एवं सरस शैलीमें इस प्रकार वर्णन किया है कि वह सजीव हो गया है। इतना ही नहीं, कहीं-कहीं उस कथाभागको स्वरचित कल्पनाका पुट देकर विशेषतया सजाकर उसमें चार चांद लगा दिये हैं, जिनमें से नल के दारा पकड़े गये हंसका करुण क्रन्दन आदि मुख्य हैं। 'सोमदेवमट्ट विरचित 'कथासरित्सागर' के अनुसार सबसे पहले इसको दमयन्ती ने अपना दुपट्टा फेंककर पकड़ा तब उसने कहा कि तुम मुझे छोड़ दो, मैं कामवत सुन्दर 1. प्रहृष्टमनसस्तेऽपि नलायाष्टौ वरान् ददुः / प्रत्यक्षदर्शनंयज्ञेशको गतिमनुत्तमाम् // अग्निरात्मभवं प्रादायत्र वान्छति नैषधः / लोकानात्मप्रभांश्चैव ददौ तस्मै हुताशनः॥ यमस्वन्नरसंप्रादाद्धर्मे च परमां स्थितिम्।अपाम्पतिरपाम्भावंयत्र वाग्छति नैषधः॥ खजश्वोत्तमगन्धाढ्याः सर्वे ते मिथुनं ददुः / वरानेवं प्रदायास्य देवास्ते त्रिदिवंगताः / / (संक्षिप्तमहाभारत वनपर्व 133617-620) भ्रंशयिष्यामि तं राज्यान भन्या सहप्स्यते। त्वमप्यक्षान् समाविश्य साहाय्यं कर्तुमर्हसि एवं स समयं कृत्वा द्वापरेण कलिः सह। आजगाम कलिस्तत्र यत्र राजा स नैषधः॥ . ( संक्षिप्तमहामारत वनपर्व 16631-633) 3. स नित्यमन्तरं प्रेप्सुनिषधेप्ववसचिरम् / अथास्य द्वादशे वर्षे ददर्श कलिरन्तरम् // कृत्वा मूत्रमुपस्पृश्य सन्ध्यामन्वास्य नैषधः। अकृत्वा पादयोःशौचंतत्रैनंकलिराविशत्॥ (संक्षिप्तमहाभारत वनपर्व 14 / 633-635) 4. स चतुर्थे ततोवर्षसङ्गम्य सहभार्यया। सर्वकामैःसुसिद्धार्थो लब्धवान परमां मुदम् // ( संक्षिप्तमहामारत वनपर्व 16 / 833)

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