________________ 11 भूमिका श्रीहर्ष का वैराग्य एवं संन्यास ग्रहणतदनन्तर काशीराज जयन्तचन्द्र के 'पभाकर' नामक प्रधान मन्त्रीने परमविकासवती एवं राजनीतिनिपुणा 'सहवदेवी' नामको विधवा शाणपति पत्नीको कुमारपालके घर लाकर सोमनाथको यात्रा कर जयन्तचन्द्रकी मोगपत्नो बनवाया। वह अपनेको लोकमें 'कलामारती' प्रसिद्ध करतो.थी और श्रीहर्ष मी 'नरभारती' कहे जाते थे। यह उस मत्सरिणीको असह्य था। एक समय उसने आदर के साथ श्रीहर्षको बुलाकर 'आप कौन हैं ? ऐसा प्रश्न किया। उसके प्रत्युत्तरमें श्रीहर्षके अपनेको 'कलासवंश' कहने पर उसने कहा कि 'जूता पहनाओ'। उसका अभिप्राय यह था कि यदि ये ब्राह्मण होनेके कारण 'मैं नहीं जानता हूँ' कहते हैं तब ये 'कलासर्वश' नहीं सिद्ध होते। श्रीहर्षने उसकी बातको स्वीकार कर वृक्षोंके वल्कल आदिसे जूता बनाकर उसे पहना तो दिया, किन्तु राजासे उसकी इस कुचेष्टाको कहकर अत्यन्त खिन्न हो गङ्गातटपर जाकर संन्यास ग्रहण कर लिया। __ जयन्तचन्द्रका इतिवृत्तइसी बीच राजाकी अभिषिक्त देवीमें एक पुत्ररत उत्पन्न हुआ. जिसका नाम 'मेषचन्द्र' था और 'सहवदेवी से भी एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो मेधावी तो था, परन्तु अत्यन्त दुविनीत था। दोनों के युवावस्था प्राप्त करने पर राजाने अपने 'विद्याधर' नामक मन्त्रीसे पूछा कि 'किसे राज्य देना चाहिये ? विद्याधरने कुलीन एवं सस्पुत्र मेषचन्द्रको राज्य देनेके लिए अपनी सम्मति दी और 'सहवदेवी के दुर्विनीत पुत्रको राज्य देनेके इच्छुक राजाको यथाकथत्रित मेषचन्द्रको राज्य देनेके लिए राजी कर लिया। यह देख कर क्रुद्ध हुई सूहवदेवीने अपने विश्वासपात्र प्रधान दूतोंको भेजकर तक्षशिलाधीश्वर 'मुरत्राणको काशीपर चढ़ाई करनेके लिए तैयार किया। 'प्रत्येक पड़ावपर सवालाख स्वर्णमुद्रा व्यय करता हुभा वह काशीपर चढ़ाई करने के लिए चल पड़ा है। यह गुप्तचरोंसे बात कर मन्त्री विद्याधरने 'सूहवदेवी'कृत विरोधको राजासे निवेदन किया, किन्तु राजाने 'वह मेरे साथ ऐसा दुम्यवहार नहीं करेगी' कहकर उसे फटकार दिया। राजाको मूर्खतासे राजमक्त मन्त्री चिन्तित हो विधिको प्रतिकूल मानकर सोचने लगा कि राज्यभ्रंश होनेके पहले मर जाना अच्छा है। यह सोचकर उसने राजासे कहा'प्रमो ! यदि भाशा हो तो मैं गङ्गाजी में डूबकर प्राणस्याग कर दूं।' अपने प्रत्येक काममें उसे कण्टकभूत मानकर राजाने मी सहर्ष आशा दे दी। मन्त्रीने सोचा-हितवचनोंको नहीं सुनना, दुनीतिमें प्रवृत्त होना, प्रिय लोगों में भी दोष देखना, अपने गुरुजनोंका अपमान करना; ये सब मृभ्युके पूर्वरूप राजामें स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं, अत एव इनकी मृत्यु अब आसन है। यह सोच सब धातुओंको सवर्ण बनानेवाले जिस 'पारस पत्थरके प्रमावसे 8800 ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन देनेके कारण 'लघुयुधिष्ठिर' उपाधिस वह मन्त्री लोकप्रसिब था, चिन्तामणिविनावकके प्रसादसे प्राप्त उस पत्थरको लेकर गङ्गाजलमें