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उपदेश से मूर्तिपूजा करनी छोड़दी है। तब एक दिन मूर्तिपूजक मन्त्री ने महाराज से निवेदन किया कि स्वामिन् ! हे नाथ ! क्या बात है, सुना जाता है कि आपने भगवान् की मूत्ति का पूजन करना छोड़ दिया है । तब महाराज ने प्रत्युत्तर दिया कि हां सत्य है मैं जड़ पूजा नहीं करूंगा । जड़ वस्तु हम को कुछ नहीं दे सक्ती । मूर्तिपूजक मन्त्री ने कहा कि हे स्वामिन् ! यदि ऐसा था तो आप पूर्व क्यों मूर्तिपूजन किया करते थे ? महाराज ने प्रत्युत्तर दिया कि मैं पहिले अज्ञान में था, परन्तु मुझे अब दूसरा मन्त्री सन्मार्ग पर ले आया है, इसलिये मैंने यह कार्य छोड़ दिया है । मूर्तिपूजक मन्त्री ने कहा,महाराज ! इस संसार में पायः ऐसा कोई भी मत है जो मूर्तिपूजन से रहित हो ? और किसी न किसी दशा में वह मूर्तिपूजा न मानता हो ? राजा साहित्र ने कहा कि आप का यह कहना असत्य है, क्योंकि हमारा दूसरा मन्त्री ही 'मूर्तिपूजन को नहीं मानता ? और " ढूंढिये " " यवन" "सिक्ख" "आर्य" " ईसाई " इत्यादि मतवाले मूर्तिपूजन को नहीं मानते हैं । मूर्तिपूजक मन्त्री ने कहा कि आपको यह भी मालूम है कि आपके दूसरे मन्त्रीजी किस यत के अनुयायी हैं ? राजा ने कहा, हां ! मुझे मालूम है कि वह आर्य हैं। मूर्तिपूजक मन्त्री ने कहा कि आपको निश्चय हो गया है कि " आर्य " " ढूंढिये " " सिक्ख " "यवन" "ईसाई" आदि मतानुयायी मूर्तिपूजन को नहीं मानते हैं। राजा ने कहा कि हां ! मुझ को दूसरे भन्त्री ने सुनाया है कि हम लोग मूर्ति को नहीं मानते हैं ॥ मूर्तिपूजक मन्त्री ने कहा कि महाराज!
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