Book Title: Murtimandan Author(s): Labdhivijay Publisher: General Book Depo View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वह भी मूर्तिपूजा से नहीं छूट सक्ते । केवल उनका यह व्यर्थ कथन है कि हम मूर्ति को नहीं मानते । सो यह वार्ता आप को यथाकथन राजा के दृष्टान्त से अच्छी तरह मालूम हो जाएगी, यदि ईर्षा के उपनेत्र को उतारकर ध्यान करेंगे, तो अवश्य मूर्तिपूजा के सूक्ष्म विषय को मान लेंगे, अब दत्तचित्त होकर मुनिये । एक नगर में एक राजा था, वह बड़ा धर्मात्मा जिज्ञासु और समदर्शी था । इसके दो मन्त्री थे, उन में से एक मन्त्री तो मूर्तिपूजा को मानता था और दूसरा नहीं मानता था और राजा साहिब स्वयं ही मूर्तिपूजा किया करते थे। राजा साहिब प्रतिदिन प्रातःकाल को इष्टदेव की भक्ति पूजा करके न्यायालय में आया करते थे, इसवास्ते मायः कुछ विलम्ब होजाया करता था । एक दिन मूर्तिपूजा को न मानने वाले मन्त्री ने हाथ जोड़कर कथन किया कि महाराज ! आप बहुत विलम्ब से न्यायालय में आते हैं इसका क्या कारण है ? श्रीमहाराजने प्रत्युत्तर दिया कि मैं पूजन करके माया करता हूं, इसवास्ते प्रायः देर होजाती है, तब मन्त्री ने कहा कि महाराज ! अपमान न समझिए, आप ऐसे बुद्धिमान होकर मूर्तिपूजा करते हो, मूर्तिपूजा से कुछ भी लाभ नहीं होसक्ता ( मूर्तिपूजा क्यों करते हैं ? ) क्योंकि जड़ वस्तु को ईश्वर मानकर पूजना बुद्धिमानों का कर्तव्य नहीं है, अन्त में उस मन्त्री ने ऐसी २ बहुतसी वाते सुनाई कि तत्क्षण महाराज जी का ख्याल बदल गया, और मूर्तिपूजा करनी छोड़दी। जब दो चार दिन व्यतीत हुए तो मूर्तिपूजक मन्त्री ने भी यह बात मुनी कि महाराज ने मन्त्री के ऐसे मूर्तिपूजा निषेध For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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