________________
( = )
उपदेशों को मान लेते हैं और तदनुसार आचरण भी करते हैं, किन्तु जो मामूली कुछ लिख पढ़कर स्वार्थान्धता में डूबा हुआ अपने ही को पण्डित मानता है और दूसरे के सत्य उत्तमोत्तम युक्तियुक्त बातों को नहीं मानता वह पहले दर्जे बढ़ा हुआ विशेष मूर्ख या महामूर्ख है । इसी बात का महात्मा यागीन्द्र 'महाराज भर्तृहरिने अपना 'नातिशतक' के श्रारम्भ में ही लिखा है कि
".
अज्ञः सुखमाराध्यः सुवनरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञान-लव दुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ॥
"9
अर्थात् साधारण दर्जे का मूर्ख सुख से समझाया जा सकता है, और जो गुण ग्राही हैं, विचार वाले हैं उनको सम-झाने में कुछ भी कठिनाई नहीं अर्थात् ऐसे लोग थोड़ा कहने पर भी बहुत समझते हैं, मगर जो ज्ञान-लव से दुर्विदग्ध हैं
अर्थात् इधर उधर किञ्चिन्मात्र जानकर अपने को ही पण्डित मानने वाला है उसको ब्रह्मा ( महा ज्ञानी या सर्वज्ञ ) भी समझा नहीं सकते या खुश नहीं कर सकते तो फिर साधारण पण्डितों की बात ही क्या ?
मगर प्रत्येक समझदार व्यक्ति का यह परम कर्त्तव्य और अधिकार है कि-शास्त्र-संगत लोकोपकारी अपने विचारों को जन-समूह (समाज) में प्रकट करे, जिस से विद्यारूपी प्रकाश की वृद्धि हो और श्रविद्यारूपी अन्धकार का संहार हो, इसीलिये अब आगे मूर्त्तिपूजा के विषय में सविस्तर प्रमाण तर्क दृष्टान्त और युक्तियों के द्वारा बहुत कुछ दिखलाया जा रहा है,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com