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भावार्थ - जिस राजा के राज्य में शयनावस्था में वा जागृतावस्था में ऐसा प्रतीत हो कि देव मन्दिर काँपते हैं, तो देखनेवालों को कोई दुःख अवश्य होगा, और वह बात उस देश के राजा के लिये भी अच्छी नहीं, अर्थात् राजा को भी कष्ट होगा । इसी तरह देवता की मूर्ति, यदि हंसती, रोती, नाचती, अङ्गहीन होती, आंखों को खोलती वा बन्द करती हुई किसीको दृष्टिगोचर हो तो समझना चाहिये कि शत्रु की ओर से कोई न कोई कष्ट अवश्यमेव होगा ।
इससे भी ईश्वर की साकारता और प्राचीन समय, मूर्ति का होना साफ साफ प्रकट होता है ।
श्राज्जूराम शास्त्री और काका कालूराम ने विनीत होकर फिर दादाजी से बोला:
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दादाजी, आपकी निःशंक युक्तियों और वेदों के प्रमाणों से तो हम लोगों की 'मूर्ति-पूजा' मानने में अब कुछ भी सन्देह नहीं रहा, मगर सवाल अब यह है कि क्या 'धर्म संहिता' (स्मृति शास्त्र) में भी 'मूर्ति पूजा' का विधान है ? क्योंकि धर्म संहिता पर भी हम लोगों की अधिक श्रद्धा है, इसमें जहाँ तक' दो. सके 'मनुस्मृति' का ही प्रमाण होना चाहिए, क्योंकि सभी स्मृतियों में केवल मनुस्मृति ही हमें विशेष रूप से प्रामाण्य है ।
दादाजी -कुछेक मुसकुरा कर अच्छाजी, सुनिये :
"मैत्रं प्रसाधनं स्नानं दन्तधावन-मज्जनम् । पूर्वाह्न एव कुर्वीत देवतानाञ्च पूजनम् ॥”
( मनुस्मृति, अध्याय ४ श्लोक १२५ )
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