Book Title: Murti Puja Tattva Prakash
Author(s): Gangadhar Mishra
Publisher: Fulchand Hajarimal Vijapurwale
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.० मूर्त्ति-पूजा - तत्त्व - प्रकाश: ( प्रथमो मयूखः ) प्रणेताः सिद्धान्त-साहित्य-प्रेमी व्याख्यान वाचस्पति मुनिपुङ्गव श्री वल्लभ विजयजी महाराज । सम्पादकः गणितागम - पारायण पण्डित श्री मोदनारायण मिश्रात्मज गङ्गाधर मिश्रः, ज्यो० आ० सा० प्रा० दर्शन - शास्त्री । प्रकाशकः स्वर्गीय सेठ फूलचन्द हजारीमलजी बीजापुरवाले ( चन्दूलाल खुशालचन्द कम्पनी -) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वाधिकार सम्पादकाधीन विक्रम सम्बत् २००३ मुद्रका सुरखी मनोहर माथुर, मैनेरकर, श्री सधा-कृष्ण प्रिन्टिङ्ग प्रेस, मोड Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आनम्र निवेदन * यह "मृत्ति-पूजा-तत्त्व-प्रकाश" नामका एक छोटा निबन्ध छपाकर प्रकाशित किया जाता है। इसमें मूर्ति-पूजा के विषय में यथामति संक्षिप्त रूप से वेद, शास्त्र, इतिहास, पुराण और जैनागम आदि के रुचिर-विचारों का सुचारु-रूप से चयन किया गया है, अतः मूर्ति-पूजा के निगूढ़-भावों के जिज्ञासुक भगवद्भक्ति-भावुक धर्म-प्रिय लघु-बुद्धि वालों के लिये यह अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होगा और उन्हें भी परमोपयोगी सिद्ध होगा जो अपनी अल्पज्ञता से ईश्वर की रचना को 8 सेर की चना बनाते और शास्त्र-सम्मत बातों को शस्त्र से मरम्मत करते हैं। मूर्ति पूजा के सभी प्रेमियों और विरोधियों से यह मेरा विशेष अनुरोध है कि वे इस पुस्तक को आमूल चूल एकवार अवश्य पढ़े और मध्यस्थ बुद्धि से विचार करें। इसमें लेखक की सफलता कहां तक है, विचार-शील पाठक ही कहेंगे। ___ मनुष्य के कृतियों में प्रमाद और भ्रम का न होना ही असंभव है, अतः जो महाशय इसके वास्तविक भूलों को मुझे सूचित करेंगे, उनका अवश्य भाभारी बनूगा और विशेष आभारी हूं-विविध-विद्या-कुमुदिनी-कुमुदनायक जैनाचार्यवर्य श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरजी के पट्टालंकार भाचार्य श्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ॥ ) विजय विज्ञानसूरीश्वरजी के शिष्य-रत्न सिद्धान्त-साहित्य प्रेमी व्याख्यान - वाचस्पति मुनि पुंगव श्री वल्लभविजयजी महाराज का जिनकी प्रेरणा, सहयोग और समुत्साह से यह पुस्तक लिखी गई और सदुपदेश से छुपकर प्रकाशित हुई जो आज आप लोगों के कर-कमलों में सप्रेम उपहार के लिये प्रस्तुत है, इति शिवम् | विनीत-निवेदक:मङ्गाधर मिश्र, शास्त्री | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “ मूर्ति-पूजा-तत्त्व-प्रकाशः" नमोऽस्त्वखिल-कल्याण-कञ्ज-कानन-भानवे । प्रणमत्सकलाभीष्ट-पूर्वये दिव्य-मूर्तये ॥ १ ॥ भावार्थ:-सर्वमंगलरूप कमल-धन के लिये सूर्य के समान, प्रणाम करने वालों की सभी इच्छाओं के पूर्ति करने वाले दिव्य मूर्ति ( भगवान् ) को प्रणाम हो ॥१॥ स्थाभीष्ट देव मूर्तीनां पूजा येन विधानतः । कृता प्राप्त न किं तेन प्रत्यक्ष किं प्रमाणकम् ॥ २ ॥ भावार्थ:-जिसने अपनी इष्टदेव मूर्तियों की विधिपूर्वक पूजा की उसने क्या नहीं प्राप्त किया अर्थात् सभी कुछ प्राप्त किया । प्रत्यक्ष में प्रमाण क्या ? ॥२॥ . पापं लुम्पति दुर्गतिं दलयति व्यापादयत्यापदं । पुण्यं संचिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगताम् ॥ सौभाग्यं विद्याति पल्लवयति प्रीतिं प्रसूते यशः। स्वर्ग यच्छति निवृतिं च रचयत्यर्चा प्रभो र्भावतः ॥३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) भावार्थ:-भगवान् की (मूर्ति) पूजा भाव से पाप को काट गिराती है, दुर्गति (दरिद्रता) को नाश करती है, आपत्ति को मार भगाती है, पुण्य को इकट्ठा (संग्रह ) करती है, लक्ष्मी को बढ़ाती है, नीरोग्ता को पुष्ट करती है, सौभाग्य को करती है, हर्ष को पल्लवित (विस्तार ) करती है, यश को उत्पन्न करती है, स्वर्ग को देती है और निति (मोक्ष) की रचना करती है ॥ ३ ॥ त्रिसन्ध्यं देवाचा विरचय चयं प्राश्य यशः श्रियः पात्रे वापं जनय नय मार्ग नय मनः । स्मरक्रोधाद्यान् दलय कलय प्राणिषु दयां, सदुक्त सिद्धान्तं शणु वृणु सखे ! मुक्ति कमलाम् ॥४॥ भावार्थ:-हे मित्र, तीनों काल देवताओं की पूजा करो, कीर्ति को फैलाश्री, श्री ( लक्ष्मी-सम्पत्ति ) को सुपात्रों में वपन करो अर्थात् सुपात्रों को दान दो, नीति के मार्ग पर मन को ले जानो, काम-क्रोध आदिक शत्रुओं को नाश करो, प्राणियों पर दया करो, सच्छास्त्र एवं सज्जन पुरुषों के कहे हुये सिद्धान्त को सुनो और मुक्ति (मोक्ष-कैवल्य ) रूपिणी कमला (लक्ष्मी) को घरो अर्थात् ग्रहण करो ॥ ४ ॥ हतप्रज्ञो व्यर्थ प्रलपति बहु स्वार्थनिरत, स्तबीयाक्ति हित्वाऽऽगमसुगम-मागांननुसर ।। नरत्वं दौलभ्यं जगति बहु योनिष्वपि सखे ! ह्यतोऽम्माभिर्भाव्यं खलु मननशीलैः प्रति पलम् ॥५॥ भावार्थ:-परमार्थ तत्व को नहीं जाननेवाले हतबुद्धि लोग स्वार्थान्ध होकर बहुत कुछ अन्ट सन्ट बकते हैं, अतः उनकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) उक्तिों को छोड़कर भागम के सुगम मार्गों को ही ग्रहण करो, क्योंकि इस संसार में अनेक (चौरासी लाख) योनियों में मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है, अतः हम प्रत्येक शरीर धारियों को चाहिये कि सर्वदा विचारशील होवे, क्योंकि मनुष्य वही है जो मननशील होकर सभी कार्यों को करता है ॥ ५॥ पुराणमित्येव न चास्ति मान्यं नवा नवीनं मतमित्यवद्यम् । सन्तो विविच्यान्तरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेय-बुद्धिः ॥ ६॥ भावार्थ:-तभी पुगनी बातें सच्ची हैं यह ठीक नहीं और सभी नई बातें कच्ची (बे ठीक ) हैं यह भी ठीक नहीं, वास्तविक अभिप्राय यह है कि अच्छे लोग अच्छी तरह विचार करके पुरानी या नई बातों में से किसी एक ही सच्ची बात को ग्रहण करते हैं और मूर्ख लोग विना विचारे ही दूसरों की कही हुई बात को मान लेते हैं ॥ ६॥ मूर्तिपूजा नवीनास्ति वृथा चेति वदन्ति ये। सदुक्तियुक्तिसंयुक्त प्रमाणैस्तन्निरस्यते ॥७॥ भावार्थ:-'मूर्ति पूजा' नई है अर्थात् पुरानी नहीं है तथा व्यर्थ (बेकार ) है इस तरह जो कोई (अविशेष दर्शी) कहते हैं, उसका खण्डन सुन्दर उक्तियों और तर्कों से युक्त प्रमाणों के द्वारा किया जाता है ॥ ७॥ मूर्ति-पूजन-तत्त्वार्थ-प्रकाशेऽस्मिन् विलोक्यताम् । मण्डनं मूर्ति पूजायाः खण्डनं दुर्धियां धियाम् ॥ ८ ॥ भावार्थ:-इस 'मूर्ति-पूजा-तत्त्व-प्रकाश' नाम के निबन्ध में मूर्ति पूजा के मण्डन को देखिये और दुर्बोधजनों के बुद्धि -(भ्रम) के खण्डन को देखिये ॥ ८ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) दाने दुर्गतिरस्ति चाप्युपकृती पापं कृषायामहो, सर्वेज्यप्रतिमार्चने च न फलं यै(वरैः कल्यते । आकाशे कुसुमं तथैव शशके शृङ्ग तुरंगे च यैस्तत्तन्नूतनकल्पकेभ्य इह नस्तेभ्यो महद्भयो नमः ॥ ६ ॥ भावार्थः-दान देने में, उपकार में, दया में पाप है और सब से पूजनीय भगवान् की मूर्ति की पूजा में फल नहीं है ऐसी जो महाशय कल्पना करते हैं, तथा आकाश में फूल की और घोड़ा या शशक (खरगोस ) में सींग की कल्पना करते हैं ऐसे नवीन कल्पना करने वाले उन महानुभावों को हमारा नमस्कार हो ॥६॥ __ "मूर्तिपूजा" का सीधा सादा अर्थ है प्रतिष्ठापित देव प्रतिमाओं का सत्कार विशेष अर्थात् स्नानादिक से पवित्र होकर यथाशक्ति समयानुसार फूल, फल, धूप, दीप, जल, अक्षत आदि को लेकर देवमन्दिर में या यथा योग्य पवित्र स्थान में जाकर विनय के साथ भक्ति-पूर्वक पंचोपचार या षोड़शो-- पचार से या केवल भव्य भावना से उन देव मूर्तियों को विशेष सत्कार करने का नाम 'मूर्ति-पूजा' है। ऊपर दिखलाया हुश्रा मूर्तिपूजा शब्द का अर्थ यदि आपकी समझ में अच्छी तरह नहीं पाया तो विशेष रूप से मूर्ति पूजा शब्द का अर्थ नीचे दिया जाता है आशा है आप इसे अच्छी तरह ध्यान देकर देखेंगे, पढ़ेगे, समझंगे, मानेगे और इससे आपके विशाल हृदय में पूर्ण 'सन्तोष होगा। - मूर्छा = मोह-समुच्छाययोः, अर्थात् मूर्छा धातु मोह और समुच्छ्रय अर्थ में है अतः मूर्ति श द की उत्पत्ति इस प्रकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) है-मूर्च्छति समुच्छ यतीति मूर्तिः, सम्-सुष्ठ उत्-ऊर्वश्रयःश्रयणं-लमुच्छ्रयः, समुच्छ य एव समुच्छायः ( ऐरव-३३५६)। भावे घङ । अर्थात् अच्छी तरह उच्च सुख के लिये यानी परम. शान्ति के लिये बा परमसुख के लिये या उच्चलोक के लिये 'जिसकी सेवा की जाय या जिसका आश्रय लिया जाय उसे मूर्ति कहते हैं___ मूर्ति का वाचक शब्द कितना है, उसे अमरसिंह ने जिम्ना है मात्र वपुः संहननं शरीरं षर्म विग्रहः । कायो देह क्लीव पुंसोः स्त्रियां मूर्तिस्तनुस्तनूः ॥ (अमर कोष) अर्थात्-गात्र, वपुस्, संहनभ, शरीर. वर्म, विग्रह, काय, देह. मूर्ति, तनु और तनू ये ११ शब्द मूर्ति के पर्यायवाची हैं। श्रीयुत् हेमचन्द्राचार्य ने भी लिखा है कि__ “ मूर्तिः पुनः प्रतिमायां कायकाठिन्ययोरपि" (अभिधान चिन्तामणि ) अर्थात्-मूर्ति शब्द प्रतिमा वाचक है, शरीरवाचक है और कठिनता ( कड़ापन ) वाचक है। . पूज--पूजायाम्, अर्थात् पूज धातु पूजन अर्थ में है, अत:पूज्यते-मनसा वाचा फूल फल-धूप-दीप-जल-गन्धाक्षतादिना सत्कारविशेषो विधीयतेऽनेनेति पूजनम् , पूजनमेव पूजा। अर्थात् मन से वाणी से और सामयिक फूल-फल-धूप-दीप-गन्ध जल-छाक्षत-नैवेद्य आदि उपकरणों (सामग्री ) के द्वारा इष्टदेव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति का जो विशेष सत्कार किया जाता है उसीका नाम पूजना है या उसीको पूजा कहते हैं। पूजा शब्द के पर्याय अमरसिंह ने लिखा है"पूजा नमस्याऽपचितिः सपर्याऽहिणाः समाः" n (अमरकोष) अर्थात्-पूजा, नमस्या, अपचिति, सपा, अर्चा और अहणा ये छः नाम पूजा के हैं। अब मूर्ति और पूजा इन दोनों पदों को इकट्ठा करने से 'मूर्ति-पूजा' यह एक संयुक्त पद हुआ इसे समासान्त पद कडते हैं। यहां षष्ठी तत्पुरुष समास है जैले-मूर्ति की पूजा या मूत्तियों की पूजा= मूर्ति पूजा। सारांश यह निकला कि उच्चसुख के लिये यानी परम शान्ति के लिये अथवा परमसुख के लिये या उच्चलोक के लिये जिसकी सेवा की जाय या जिसका प्राथय लिया जाय उसे विश्ववन्द्य वीतराग ईश्वर की मूर्ति कहते हैं, उसी मूर्ति को श्रद्धा सहित पवित्र मन वाणी के द्वारा फूल-फल धूप-दीप-जल-अक्षत-नैवेद्य आदि से विशेष सत्कार करने का नाम ही मूर्ति पूजा" है। अव श्रद्धालु मूर्तिपूजक बुद्धिमान् मूर्तिपूजा शब्द को किन अर्थों में मानते हैं, वे सब के सब ऊपर बतलाये हुये भूर्ति-पूजा शब्द के अर्थो से साफ साफ प्रकट हैं। हां, यह एक दूसरी बात है कि कोई विपरीत विचार वाले मूर्ति-पूजा विद्वती महाशय स्वमत सिद्ध करने के लिये बलात्कार खैचातानी करके मूर्ति-पूजा शब्द के सुप्रसिद्ध लक्ष्यार्थ को अनर्थ कर डालें, ऐसे यक्तियों के लिये यह कहावत अत्यन्त प्रसिद्ध है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) "खुशी मियां मिट्ट की अपनी दोड़ी रक्खे या मुंडाले" इसलिये जिन भाइयों के शून्य हृदयागार में अपनी कुटिलकराल कृष्ण पक्ष की बलात्कार स्थापना करने का जिद्द है, उनके लिये तो यह मूर्ति पूजा का सप्रमाण सोपपत्तिक तर्कयुक्त सरस सविस्तर भी लेख कौड़ी काम का नहीं होगा, मगर हां, जो सत्य और असत्य के निर्णायक हैं, श्रद्धालु हैं, विचारवान् हैं और मननशील होकर भले बुरे का विचार करते हैं उनको तो दिव्य दृष्टि के जैसा काम देगा, अर्थात् मनुष्य जनोपयोगी बहुत सामग्री इसमें विचार-चक्षु के द्वारा दीख पड़ेगा। साथ ही निविवेकियों के लिये तो पहले भी कुछ कहा जा चुका है और फिर भी कहना पड़ता है कि-अच्छी अच्छी युक्तियों से भरपुर लोकशास्त्र संमत सर्वोपयोगी कल्याणकारक उपदेश भी उन्हें सुनाया जाय या पढ़ने के लिये दिया जाय तो वह 'अरण्य रोदन' या 'जल-ताड़न' के जैसा होता है, इसीलिये महात्मा तुलसीदास ने अपनी गमायण ( रामचरित मानस ) में इनको किस तरह वर्णन किया है, ध्यान देकर देखिये पढ़िये सुनिये और मनन कीजिये "फूलै फलै न वेत, यदपि सुधा वह जलद । मूढ़ हृदय नहि चेत, जो गुरु मिलय विरंचि सम ॥" बस, अब आपको मूर्य के लक्षणों को जानने के लिये यह ऊपर का सोरठो ही काफी है। मगर मूर्ख भी दो तरह के होते हैं-एक साधारण मूर्ख और दूसरा विशेष मूर्ख । इनमें साधारण मूर्ख तो किसी प्रतिभाशाली सर्वोपकारी विद्वान् महात्मा के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( = ) उपदेशों को मान लेते हैं और तदनुसार आचरण भी करते हैं, किन्तु जो मामूली कुछ लिख पढ़कर स्वार्थान्धता में डूबा हुआ अपने ही को पण्डित मानता है और दूसरे के सत्य उत्तमोत्तम युक्तियुक्त बातों को नहीं मानता वह पहले दर्जे बढ़ा हुआ विशेष मूर्ख या महामूर्ख है । इसी बात का महात्मा यागीन्द्र 'महाराज भर्तृहरिने अपना 'नातिशतक' के श्रारम्भ में ही लिखा है कि ". अज्ञः सुखमाराध्यः सुवनरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञान-लव दुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ॥ "9 अर्थात् साधारण दर्जे का मूर्ख सुख से समझाया जा सकता है, और जो गुण ग्राही हैं, विचार वाले हैं उनको सम-झाने में कुछ भी कठिनाई नहीं अर्थात् ऐसे लोग थोड़ा कहने पर भी बहुत समझते हैं, मगर जो ज्ञान-लव से दुर्विदग्ध हैं अर्थात् इधर उधर किञ्चिन्मात्र जानकर अपने को ही पण्डित मानने वाला है उसको ब्रह्मा ( महा ज्ञानी या सर्वज्ञ ) भी समझा नहीं सकते या खुश नहीं कर सकते तो फिर साधारण पण्डितों की बात ही क्या ? मगर प्रत्येक समझदार व्यक्ति का यह परम कर्त्तव्य और अधिकार है कि-शास्त्र-संगत लोकोपकारी अपने विचारों को जन-समूह (समाज) में प्रकट करे, जिस से विद्यारूपी प्रकाश की वृद्धि हो और श्रविद्यारूपी अन्धकार का संहार हो, इसीलिये अब आगे मूर्त्तिपूजा के विषय में सविस्तर प्रमाण तर्क दृष्टान्त और युक्तियों के द्वारा बहुत कुछ दिखलाया जा रहा है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) क्योंकि बहुत ऐसे भी बन्धुगण हैं, जिन्हें मूर्ति-पूजा-निन्दको की विभ्रम वाणी को सुनकर मर्ति-पूजा की ओर प्रवृत्ति नहीं होतो, नतीजा यह निकलता कि ऐसे भोले भाई अपने सुगम कल्याण-पथ से गिर जाते है। मैं यह नहीं कहता कि श्राप सहसा मेरी बातको मानले कि मूर्ति पूजा अवश्य करो, किन्तु यह भी कहने से चुप नहीं रहा जाता कि इस में जो कुछ लिखा जा रहा है वह प्राय: सप्रमाण सोपपत्तिक और सयुक्तिक है, इसलिये श्राप यदि निष्पक्ष भाव से प्रेम-पूर्वक इसको पढेंगे और मनन करेंगे तो आपके हृदय में इस से अवश्य पूर्ण सन्तोष होगा, एवम् मूर्ति-पूजा में प्रीति और भक्ति होगी, तथा श्राप स्वयं दूसरों का कहेंगे कि भाइयों ! 'मूर्ति पूजा' अवश्य करनी चाहिये ।'अथवा संक्षेप में या कह सकते हैं कि वैदिक धर्मावलम्बी, बौद्ध, जैन, सिक्ख. इसाई और मुसलमान श्रादि सब के सब किसी न किसी रूप में मूर्ति-पूजा को अवश्य मानते हैं ।। हां, यह दूसरी बात है कि कोई तो खुल्लम खुल्ला मानता है और कोई किसी स्वार्थान्ध के भ्रमपूर्ण बहकाव में प्राकर विवेक हीन होने से 'मूर्ति-पूजा' को नहीं मानने का दावा करता है, मगर ऐसे व्यक्ति और उनके उपदेशक सुधारक भी किसी न किसी तरह मूर्ति पूजा को अवश्य ही स्वीकार करते है। हम अब इन बातों को किस्ला, कहानी, इतिहास, युक्ति, तर्क और प्रमाणों के द्वारा आप को बतलाते हैं, श्राशा है श्राप पर्ण-ध्यान देकर इसे सुनेंगे-विचारेंगे और स्वीकार करेंगे कमनीय कल्पनापुर के पास सुधारकपुर नाम का एक गांव था। वहां नये सुधारकों के जैसे मतों के मानने वाले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) (4 काका कालूरान नाम के एक व्यक्ति रहते थे । इनके पूर्व वंशज तो आस्तिक थे, देव-मूर्त्ति पूजक थे, वेदादि सत्य शास्त्र को मानने वाले थे, ईश्वर पर विश्वास रखते थे सदाचारी थे और थे कुलीन । मगर जब काका कालूराम इस दीवानी दुनियां में दीखने और दीखाने लायक हुये तो इन्होंने वेद-शास्त्रों, प्राचीन कल्याण कारक धर्मवृक्ष पर कुल्हाड़ी फेरना शुरू कर दिया, क्योंकि कालूराम को आरम्भ में धार्मिक शिक्षा नहीं देकर इंगलिश फर्स्ट बुक ( श्रंगरेजी की प्रथम पुस्तक ) ही पढ़ने के लिए दी गई थी । कुछ दिन के बाद नई दुनियां की नई हवो जब कालूराम को लगी तब वे अंग्रेजी को भी अधूरा ही छोड़ कर इधर उधर भटकने लगे और नये आर्यसमाजियों की तरह पल्लवग्राहि पाण्डित्यं " के अनुसार थोड़ा थोड़ा हर एक मज्भब को दिल और श्रांख को अलग अलग करके देखा, फिर क्या कहना है इनके श्राचरण और मान्यता के विषय में, अर्थात् यूरोपीय अनार्य सभ्यता इनके दिल में घुस गई और ये लोकोपकारी सत्य सनातन सुख प्रद प्रत्येक आर्य-धर्म-कर्म को अपने दिल से उड़ा दिये, इनको ईश्वर और धर्म केवल ढोंग ही दीखने लगे, यानी नये आर्यसमाजियों से भी ऊंचे दर्जे में इनका नाम दाखिल हो गया। चूंकि नये सुधारक आर्य समाजियों की प्रारम्भिक शिक्षा प्रायः किसी वैदिक मन्त्र से ही दी जाती है जिस में खास कर ईश्वर या धर्म का वर्णन रहता है, इसलिये ऐसे आर्यसमाजी वेदादि सच्छास्त्र और ईश्वर आदि सर्व मान्य वस्तुओं को अवश्य मानते हैं । मगर कालूराम की आरंभिक शिक्षा इंगलिश शिक्षा थी, इसलिये वे नये श्रार्य समाजी से भी ऊंचे दज में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) हुये, क्योंकि प्रारम्भिक इङ्गलिश शिक्षा वाले प्रायः वेदादि सत्य शास्त्र और ईश्वर को भी हृदय से नहीं मानते इसके दर्जनों प्रमाण मिलते हैं, यही बात कालूराम को भी सवा सोलह आना लागू हुई, ऐसे प्रसंगों पर महात्मा तुलसीदास का एक दोहा कितना उपयुक्त है सुनिये" ग्रह-गृहीत पुनि बात-घश तापर बिच्छू-मार । ताहि पिलावे वारुणी, कहो कौन उपचार ॥" फिर क्या था, कालूराम ने समय पाकर धर्म मार्ग को शीघ्र ही तिलाञ्जलि देदी । चूँकि, यह एक साधारण प्रसिद्ध व्यक्ति थे, धनी थे, इसलिये इनके अनुयायी भी शीघ्र ही अधिक संख्या में हो गये। प्रायः अधर्म करते आदमी को तत्काल में कष्ट नहीं होता और धर्म करने में तो बड़े बड़े शूरवीरों को भी खट्टी डकार पानी लगती हैं, शास्त्र भी कहता है कि “धर्मस्य गहना गतिः " अर्थात् धर्म की गति बहुत कठिन है, बात सवा सोलह श्राना सच्ची है. क्योंकि धर्मपालन करने में भगवान रामचन्द्र, बुद्ध, महावीर, युधिष्ठिर और नल प्रादि को कितका कष्ट उठाना पड़ा था, इतिहास साक्षी है। मगर कष्ट सहकर भी अपने धर्मों को पूरी तरह पालन करने के कारण ही इन लोगों का नाम स्वर्णाक्षर से अङ्कित अजर अमर हो गया। इसके विपरीत असत्य भाषण चोरी जारी आदि पाप कर्म सुगमता से हो जाते हैं, किन्तु दोनों के बीच बहुत कुछ अन्तर हैं, जैसे-धर्म कार्य तो प्रारम्भ में विष के समान मोलुम होता है और परिणाम में अमृत के जैसा होता है लेकिन पाप कर्म के प्रारम्भ में सुगमता और लाभ भी मालुम होता है किन्तु परिणाम विषमय होता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२) है। वम, यही बात काका कालूराम और उनके अनुयायियों को भी हुई, मगर दुनियाँ इस बात को मानती है कि "जमाना रंग बदलता है" अर्थात् समय परिवर्तनशील है, इस सन्सार में सब ही को कभी सुख और कभी दुःख अवश्य भागना पड़ता है, यानी दुनियाँ में एक भी ऐसा श्रादमी नहीं जिसका जीवन केवल सुखमय या केवल दुखमय हुआ हो। काका कालूराम का समय ने भी पलटा खाया और दुखों के सघन अन्धकार उन्हें दीखने लगे जब कालूराम को अधिक दुःख होने लगा तब दे अपने किये हुए दुष्कर्मों को कभी कभी मन में लाकर बहुत अफसोस करते थे और भगवान् के नाम, पूजन आदि में उनकी रुचि ऊपर से कुछ कुछ होने लगी। मगर अन्तस्तल मे तो पाण्डियों के.पाखण्डपने का ही भूत सवार था। वास्तव में यह एक प्रसिद्ध बात है कि कोई जब पाप कर्म को करता है तब उससे पहले उसकी अन्तरात्मा में ऐसा एक बार अवश्य होता है कि यह दुष्कर्म करना अच्छा नहीं, इसे नहीं करना चाहिये । जब बुद्धि उस समय सत्वगुण युक्त .नर्मल होती है तब फिर वह श्रादमी उस प्रकर्म को नहीं करता, यदि बुद्धि उससे विपरीत तमोगुणवाली होती है तो दुष्कर्म से छुटकारा नहीं होता । कालूगम की बुद्धि बहुत दिनों से तमोगुण से युक्त थी, मलिन थी, इसलिए अच्छे "विचारों को आने पर भी वे उसे अपवा अमल में लाने से मजबूर थे। चूँकि यह भी एक प्रसिद्ध बात है कि हमेशा जिस वस्तु का ध्यान करें, स्मरण करें और मन में लावे| वही वस्तु उस व्यक्ति को प्रिय मालूम होती है। मगर यहाँ मामला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) कुछ और होगया । कालूराम जब हर तरह से अधिक दुःखी हुये तब पाखण्डपनों के सहारे अपनी बीमारी का पूरा इलाज किया, जब उससे भी इनकी दुःखरूपी दाल नहीं गली, तब ईश्वर भक्ति, नामकीर्तन, पूजन आदि की तरफ भी कुछ नजर को दौड़ाये । दुःखी आदमी भी अपने दुःखों को दूर करने के लिये ईश्वर की सेवा भक्ति करते हैं, ऐसी भगद्गीता की गर्जना है चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिमोऽर्जुन!। श्रात्तॊ जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी व भरतर्षभ ! ॥ श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे भरतवंश श्रेष्ठ अर्जुन चार प्रकार के लोग मुझ (ईश्वर) को भजते हैं, एक श्रात्त (दुखी), दूसरा जिज्ञासु (जानने की इच्छावाला) तीसरा अर्थार्थी (धन पुत्रादि के इच्छुक) और चौथे ज्ञानी (प्रात्मभानी) ये सबके सब मुझे भजते हैं, इसलिये वे सब पुण्यात्मा हैं मगर सबसे अच्छा ज्ञानी ही है यह मेरा सिद्धान्त है। ____मगर कालूराम की अन्तगत्मा में पाखण्डपने के विचारों का ही प्रबल प्रसार था। ऊपर बगुला भगत के जैसे कभी कुछ लोगों को दिखाने के लिये कर लेते थे या जब दुःखों का दौड़ा काबू में नहीं रहता था तब बगुला भगत बन जाते थे मगर इससे कुछ भी होने जाने वाला नहीं था। भगवद्भक्ति में तो पूरी सचाई चाहिये, सचाई की कसौटी पर सवा सोलह श्राना उतरनेवाली ही भक्ति वारतव में भक्ति है। हमेशा सत्य की विजय और झूठ की हार होती है। यदि कोई कपटी ऊपर से आडम्बर करके बगुला भगत बन जाय ता उसका निस्तार नहीं होता । यानी अन्त में वह पाखगडपन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुल ही जाता और कोई सच्चरित्र सन्त महात्मा ऊपर ले भले ही कुवेष किये हों मगर अन्दर से उनकी भावना अच्छी हैं, वे सदाचारी हैं, सत्यभाषी हैं, परोपकारी हैं, तत्वज्ञ हैं तो वे दुनियाँ से अवश्य पूजे जाते हैं, इसीलिये महात्मा तुलसीदासजी ने लिखा है किउघरहि अन्त न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावण राहू ॥ किये कुवेष साधु सन्मानू । जिमि जग जामवन्त हनुमानू । धर्म-विरोधी जन पूर्व-पुण्य के प्रभाव से अब तक धन दौलत, मित्र, पुत्र, शरीर आदि सुख से मुक्त रहते हैं तब तक धर्म मार्ग की एक भी बात उन्हें अच्छी नहीं लगती। यहाँ तक कि ईश्वर का भजन, पूजन और परोपकार आदि से भी कोसों दूर रहते हैं, मगर जब पाप-कर्म सिर 'पर सवार होकर उन्हें खूब सताता है, तब बगुला भगत बनकर ईश्वर भजन आदि धर्म कार्य को ऊपर से मानते हैं, किन्तु सत्य-भाषी, धर्म-प्रेमी, परोपकारी सजनगण तो सुख में वा दुःख में प्रत्येक अवस्था में ईश्वर को अनन्यभक्ति से भजते हैं और लोक सम्मत शास्त्रीय धर्म-कार्य को करते हैं । -ऊपर की वात काल्पनिक भक्ति और वास्तविक भक्ति का एक अच्छा दृष्टान्त है और महात्मा कबीरदासजी ने अपनी एक साखी में इसी बात को लिखा है कि दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमिरन करे, दुख काहे को होय ॥ काका कालराम कई दिनों तक और भी पाखण्डपने को अपनाते हुए बगुला भगत ही बने रहे। फिर जब कुछ और समय बीता तो कालूराम के पूर्व पुण्यों की छाया उनके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ). मलिन हृदय पट पर पड़ने के लिए प्रस्थान की। क्योंकि व्यक्ति मात्र के सुख दुःख में यथा समय हेर फेर अवश्य होता है इस बात को कवि-कुल-किरीट कालीदासने खूष अच्छी तरह लिखा है - "कस्यात्यन्तं सुखमुपगतं दुःखकान्ततो वा नीचर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण" अर्थात् लगातार सुख या दुःख किसी को नहीं होता, किन्तु जैसे गाड़ी के चलने केसमय में गाड़ी का चक्र (पहिया, चक्का) और नेमि ( श्रारा) ऊपर और नीचा होता रहता है, उसीतरह प्रत्येक जीवों का जीवन सुख और दुःख से भरा हुधा है। कभी सुख तो कभी दुःख ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं जिलको सदा केवल दुःख ही मिला हा या सुख ही मिला हो। प्रकृति देवी की लीला तो विचित्र है ही, समय को पाकर उस सुधारक पुर गांव के पास एक सच्चात्यागी सर्व शास्त्रज्ञ महोपदेशक दादा दीनबन्धु नाम के योगीराज पाये। सच्चा धर्म कर्म का उपदेश करना और लोगों के उचित प्रश्नों का समुचित उत्तर देना योगीराज का खास काम था। स्वभाव में बड़े ही सौम्य थे, वाणी मीठी थी और थी प्रभाव बाली। प्राचार सदाचार था कोई कुछ पूछता तो हंसते हंसते उसका उत्तर दे देते थे विपक्षियों के मन में भी उनके उपदेशों का मान था । क्यों न मान हो, क्योंकि सच्चे दिल से जो धर्म के पुजारी हैं उनके चरणों में आज भी दुनियाँ नतमस्तक होती है। अस्तु एक दिन अवसर पारक काका कालूगम भी योगीराज के भाषण को सुनने के लिये गये । पहले तो इन्हों ने अपने मन में ऐसा इरादा करके चला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) कि किसी तरह अपने प्रश्नों के बदौलत योगीराज को चुप अवश्य करना चाहिये साथ में इनके अनुयायी भी अनेक थे। पण्डाल की रचना अच्छी तरह हुई थी, हजारों की संख्या में अनेक तरह के विचार वाले लोग वहां इकट्ठे हुये थे। व्याख्यान की जगह अनेक उपकरणों से शोभित थी। निर्दिष्ट समयानुसार योगीराज वहां पहुंच गये। पहुंच ते ही उनके सबही ने समुचित स्वागत करके निजी सत्कार बतलाया योगीराज ने भी सब को जय जगदीश कहकर अपने प्रासन पर बैठ गये और बैठते ही ॐ शब्द की हर्ष-प्रद ध्वनि की। उसके अनन्तर बड़े प्रेम से माङ्गलिक श्लोकों को प्रारम्भ में बोले, जिससे श्रोतागण के मन एकाग्रचित्त से उनके भाषण को सुनने के लिये हर्ष से प्रफुल्लित होकर मंत्र मुग्ध से होगये। अनन्तर योगीराज ने श्राने भाषणों में दान, शील, तप, भाधना, विनय, चारित्र्य, देव-गुरु-भक्ति और ईश्वर पूजन आदि को खूब विस्तार-पूर्वक सुन्दर भावों में अनेक दृष्टान्त और आगम आदि के प्रमाणों से लोगों को समझाया। मानवता की अच्छी तरह व्याख्या की। धर्म की रक्षा को करने के लिये लोगों को खूब उत्साह बढ़ाया और सब में सफल हुए । भाषण ऐसा मधुर मनाहर और रुचिकर था कि साधारण व्यक्ति भी कान लगाकर सुनते थे । कठिन से कठिन विषयों को ऐसे सीधा सादा करके समझाते थे कि दुर्बोध बांसक भी उस बात को सहज में समझ लेता था। इस तरह उस दिन का भाषण समाप्त हुश्रा और सबके सब वास्तविक धर्मोपदेश से उत्पन्न परम श्रवणानन्द को अपनी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) इच्छा के अनुसार प्राप्त किया। किन्तु इतना होने पर भी काका कालूराम के मन में पूरी शान्ति नहीं हुई, उनके हृदय में बहुत दिनों की आशङ्काये भरी पड़ी थी, इसलिये अपना अच्छा अवसर जानकर योगीराज से कुछ पूछने के लिये उत्सुक हुए। योगीराज का भाषण समाप्त हो चुका था, इसलिये लोगों के धार्मिक प्रश्नों के समुचित उत्तर देने में समय अनुकूल था। फिर क्या था, समय पाकर काकाजी की तरफ से जन्म भर की जकड़ी हुई, कुटिल प्रश्नों की झडियां लगने लगी-नीचे गौर करके देखियेःकाकाजी-योगीराज के सामने हाथ जोड़ कर महाराज, मुझे श्राप से कुछ प्रश्न पूछना है, श्राशा हो तो पूछू। दादाजी-हर्ष के साथ, आप की जितनी इच्छा हो प्रश्न कर सकते हैं। काकाजी-महाराज, मूर्ति तो जड़ हैं, फिर उस जड़ प्रतिमा की पूजा करने से चैतन ईश्वर का ज्ञान कैसे हो सकता ? दादाजी-सुनोजी, हम आप जो अक्षर लिखते हैं, वे जड़ ही हैं, और अक्षरों के समुदाय वेद शास्त्र श्रादि पुस्तके भी जड़ ही हैं, किन्तु उन जड़ पुस्तकों को अच्छी तरह पढने और मनन करने से चेतन रूप ईश्वर का या व्यक्ति विशेष का ज्ञान हो जाता है, इसलिये जड़ मूर्ति में भक्ति भाव से ईश्वर की पूजा करने से चैतन्य ईश्वर का ज्ञान होता है इस में कुछ भी सन्देह नहीं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १= ) काकाजी - महाराज, महाकाश-स्वरूप ईश्वर को छोटी जड़मूर्ति में मान कर पूजा करने से उस विशाल स्वरूप ईश्वर का ज्ञान कैसा ? दादाजी - सुनोजी, पृथिवी लाखों कोस तक लम्बी चौड़ी है, मगर भूलोग पढ़ने वाले २-३ फूट के कागज पर ही उसका ज्ञान कर लेते हैं । इसी तरह श्राप 'ॐ' शब्द को ईश्वर का बोधक मानते हैं, इसलिये जैसे अत्यन्त लघु रूप 'ॐ' शब्द से ईश्वर का बोध आपको होता है, वैसे ही मूर्ति-पूजकों को भी आपके 'ॐ' शब्द से भी बड़ी आकारवाली मूर्ति से ईश्वर का ज्ञान होता है, इसमें आश्चर्य क्या ? काकाजी - महाराज, मूर्त्ति जड़ है, इसलिये वह तो अपनी देव की भी रक्षा नहीं कर सकती, तो फिर हम लोगों की क्या रक्षा कर सकती है ? दादाजी - महाशय, आपकी वेदादि पुस्तकें भी तो जड़ हैं, वे अपनी रक्षा स्वयँ नहीं कर सकतीं, मगर उन पुस्तकों के द्वारा हम लोगों को कितने ज्ञानों का लाभ होता है आपको मालुम होगा, इसलिये जड़मूर्ति तो स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकती, मगर उसका पूजा करने वालों को उसके द्वारा बहुत रक्षा होता है और उसकी अपनी भी रक्षा होती है । काकाजी - महाराज, जड़ मूर्ति को प्रति दिन भक्ति भाव से पूजा करने से मूर्तिपूजकों मन में जड़ता का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) संस्कार जम जायगा, नतीजा यह होगा कि वे मरने के बाद पत्थर हो जायेंगे, इसलिये मूत्ति-पूजा से लाभ की जगह हानि ही दीखती है । दादाजी -कुछेक मुसकिरा कर श्रहह ! आपका यह बे नजीर श्रम और दूरदर्शी दृष्टि कैसी ? जरा दिल में गौर करके शोचें और समझें कि - पैसा, दो पैसा, श्रीना, दो आना, रुपया, नोट और टीकट आदि सब ही चीजें जड़ हैं, और राजा से रंक तक सभी प्रति दिन इसका व्यवहार करता है और यह बात तब से चली आ रही है जब से दुनियादारी है, अब आपके कथनानुसार - " जड़ की सेवा करने से मरने के बाद चेतन भी जड़ हो जाता है " तो आाज, आप लोग सब के सब लोहो, पीतल, चान्दी, सोना या कागज के रूप में, अड़ रूप ही होजाते मगर ऐसा दीखने में नहीं आता, बल्कि प्रत्येक बारह वर्ष के बाद मर्दन सुमारी में लाखों तक हिन्दुस्तानी जन संख्या बढ़ती है, इसलिये मूत्ति पूजा से कोई भी जड़ नहीं होता अपितु उत्तम गति होती है । काकाजी - कुछ तेज होकर, महाराज, उस जड़ मूर्ति में चैतन्य ईश्वर की कल्पना बेकार है, अच्छी कल्पना तो यह कि उस सर्व व्यापक ईश्वर के निराकार रूप की ही पूजा की जाय । दादाजी - वाहरे काविल, भला बताओ तो सही कि निराकार को तुम अपना ध्यान में कैसे ला सकते और जब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) ईश्वर सर्व व्यापक है तब जड़मूत्ति में ईश्वर की पूजा सिद्ध ही हो चुकी । काकाजी - जरा भौंह लटका कर, महाराज, श्राप तो कहते हैं कि मूर्ति-पूजा अच्छी है, मगर जब मूर्त्ति को कोई चोर चुरा कर ले जाता या कोई दुष्ट उसे तोड़ फाड़ डालता तब मूर्त्ति उस चुराने वालों को या तोड़ने फोड़ने वालों को कुछ नहीं कहती, अतः जो अपनी भी रक्षा नहीं कर सकती वह दूसरे की रक्षा क्या कर सकती ? दादाजी- खूब जोर से, वाहरे अकल मन्दों के सिरताज, बलिहारी है ऐसी बुद्धि के बौछार पर। आपको यह नहीं मालुम कि आपकी धार्मिक वैज्ञानिक वेदादि पुस्तकें बड़े काम की चीज हैं यदि उन्हें कोई चोर चुरा कर ले भागे या फाड़ डाले तो वे स्वयं अपनी रक्षा कर सकती हैं ? या उसकी रक्षा करना आपका काम है । इसलिये आप जब मूर्त्ति की रक्षा करेंगे और उसकी सेवा-पूजा करंगे तब वह आपकी रक्षा अपने सेवाजनित पुण्य फलों से अवश्य करेगी। और आपकी जो यह महाभ्रान्ति है कि मूर्ति में स्थित देव न अपनी रक्षा करते और न चुराने वालों को सजा देते, यह भी व्यर्थ की शंका है, क्योंकि बहुतेरे ऐसे आदमी हैं जो ईश्वर को कभी कभी श्रवाच्य शब्द भी कहते हैं, खरी खोटी सुनाते हैं, एवं कितने तो ईश्वर की मानते तक भी नहीं हैं, तो क्या ईश्वर स्वयं 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) आकर उसको दण्ड देता है या पहले ईश्वर को यह बात मालुम नहीं थी कि यह मुझे दुर्वाक्य कहेगा, इसलिये इसको पैदा करना अच्छा नहीं ? नहीं! नहींजी !! कभी नहीं! बिलकुल नहीं !! हरगिज नहीं!!! ईश्वर उस दुर्वाक्य कहने वालों को स्वयं प्राकर कुछ नहीं कहता, मगर उसका परिणाम उस दुष्ट व्यक्ति पर भयानक रूप से पड़ता है क्योंकि वह तमोगुणयुक्त अज्ञान के वश में होकर वैसा कहता है जिसका फल उसको बहुत बुरा होता है । बस अब आप अपने उपयुक्त प्रश्नों के उत्तर में भी इसी घात को ध्यान में लावें कि मूर्ति तो अपने आप उन चुराने घालों को कुछ नहीं कह सकती मगर उन चोरों को इसका दुष्परिणाम अवश्य भोगना पड़ता है और मूर्ति की सेवा, रक्षा 'श्रादि करने से सेवक की रक्षा भी मूर्ति के द्वारा होती है। काकाजी-महाराज, चैतन्य प्रात्मा को जड़ मूत्ति से क्या लोभ ? क्योंकि जड़ चीजे न अपना ही कोई उपकार कर सकती और न चेतन को ही कर सकती हैं, इसलिये मूर्ति पूजा नहीं करनी चाहिये। दादाजी-वाहजी वाह सावस, क्या जड़ चैतन्य को कुछ भी लाभ नहीं पहुँचाता ? अच्छा सुनो-मानलो कि एक श्रादभी अच्छा हट्ठा-कडा शरीर में सुडौल है मगर उसे पाखें नहीं है तो क्या वह कुछ देख सकता है ? उत्तर में कहना पड़ेगा कि नहीं। अब यहां देखना चाहिये कि चैतन्य रूप आत्मा तो उसमें विद्यमान . है मगर जड़ ांखों के न होने से उस चेतन मात्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) को भी नहीं दीखती, क्योंकि देखने की शक्ति तो प्रांख में ही है, जो कि जड़ है, इसलिये चेतन आत्मा को जड़ मूर्ति को अपनाने से बहुत लाभ होता है। और भी सुनो कि-आखें स्वयं अपने को नहीं देखती मगर कोई, उत्तम शीशा (दर्पण) को देखे तो उसमें उसकी आखें, मुह, नाक, कान, श्रादि साफ साफ दिखलाई देगी, अब समझो कि चेतन श्रात्मा और जड़ पाखें इन दोनों को एक तीसरी जड़ वस्तु से कितना लाभ होता है। इसी तरह और भी समझो कि-तुम में देखने की शक्ति १-से-दो मील तक की है, अब यदि तुम्हारे ांस्त्र में दूरवीक्षण यन्त्र लगा दिया जाय तब तुम पहले की अपेक्षा दश गुना बीस गुना या पचाश गुना भी दूर तक देख सकोगे, अब शोचो और समझो कि तुम्हारी चेतन प्रात्मा तुम में विद्यमान है और उसकी सहायता करने वाली जड़ अांखें भी तुम्हारे पास हैं मगर एक तीसरी जड़ वस्तु की सहायता तुम्हें दी गई तब तुम्हारे दीखने की शक्ति कितनी बढ़ गई, इसलिये मूर्ति-पूजा करने से चेतन श्रात्मा को बड़ी शान्ति का लाभ होता है। काकाजी-कुछ बेग में श्राकर, महाराज, स्वामी दयानन्द सरस्वती श्रादिक महर्षि ने मूर्ति-पूजा को नहीं माना इसलिये हम भी नहीं मानते हैं। दादाजी-यह आपका कहना कि-स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी मूर्ति पूजा को नहीं मानते थे, सरासर झूठ है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) अर्थात् स्वामीजी विद्वान थे, वे मूर्ति पूजा को मानते थे। काकाजी-आश्चर्य के माथ, महाराज, आप यह क्या कह रहे हैं ? भला ऐसा कभी हो सकता है, यदि ऐसी बात है तो कहां जरा दिखलावें। दादाजी-सुनोजी साहय, दिखलाता हूँ कि-सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक के ३७ पृष्ठ में स्वामी जी ने लिखा है किहवन करने के लिये इतनी लम्बी चौड़ी और ऐसी चतुष्कोण वेदी होनी चाहिये, ऐसा प्रोक्षणी पात्र और ऐसा प्रणिता पात्र होने चाहिये । अब जरा अकल से काम लो कि यदि स्वामीजी मूर्ति को नहीं मानते तो अपना खास ग्रन्थ में इसे क्यों लिखते ? अथवा शिर्फ कह कर ही समझा देते फिर चित्र (आकार) देकर व्याख्या करने की क्या आवश्यकता थी ? इस लिये स्वामीजी भी मूर्ति को मानते थे। काकाजी-महाराज, हम उन चित्रों को ठीक वेदी तो नहीं मानते किन्तु असली वेदी आदि के ज्ञान में निमित्त मानते हैं। दादाजी-विहंस कर, वाहजी वाह-श्राप जैसे उन चित्रों को असली वेदी के ज्ञान में निमित्त मानते हैं, उसी तरह मूर्ति-पूजक भी वास्तविक ईश्वर के ज्ञान में उस पत्थर की मूर्ति को हेतु मानते हैं। काकाजी-वेदी आदि वस्तु साकार होने से बन सकती है, मगर ईश्वर तो निराकार है, केवल ज्ञान गम्य और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) हृदय में चिन्तनीय हैं तो ईश्वर का आकार कैसे हो सकता है ? दादाजी - जब आप का ईश्वर निराकार है और हृदय मात्र चिन्तनीय है तब उस ईश्वर के साथ ॐ पद का सम्बन्ध नहीं रहेगा, क्योंकि ॐ पद रूपी है, इसलिये ॐ पद के ध्यान उच्चारण आदि से आप को कुछ भी लाभ नहीं होगा । काकाजी - ना ! जी महाराज, जब इन ॐ पदका ध्यान करते हैं तब हमारा ध्यान ॐ पद के साथ नहीं रहता, प्रत्युत उस समय ॐ पद के वाच्य ईश्वर में रहता है । दादाजी -- जब आपका ध्यान उस ईश्वर के 'वाचक' ॐ पद को छोड़ कर 'वाच्य' ईश्वर में रहता है तब आपको ईश्वर के 'वाचक' ॐ पद की क्या आवश्यकता है ? काकाजी — कुछ कटकटा कर, महाराज - यहाँ ॐ पद की आवश्यकता इसलिये होती है कि - ॐ पद के बिना ईश्वर का ज्ञान हो ही नहीं सकता । दादाजी - कुछ मुसकुराते हुये - हां, अब ठीक रास्ते पर श्रा गये, अच्छा सुनो और ध्यान देकर खूब सुनो और समझो भी कि - जैसे, ॐ पद की स्थापना के बिना ईश्वर का ध्यान नहीं हो सकता, वैसे ही मूर्ति के विना साधारण मनुष्यों को ईश्वर का ज्ञान ध्यान भी नहीं हो सकता, क्योंकि जब तक मनुष्य को केवल ज्ञान नहीं होता, तब तक मूर्त्ति के विना ईश्वर के स्वरूप का बोध होना कठिन ही नहीं बल्कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५) असंभव है, अतः ईश्वर बोध का कार्य में कारणभूत मूर्ति-पूजा को अवश्य करनी चाहिये । काकाजी-महाराज, ईश्वर तो निराकार है, फिर उसकी मूर्ति किसने देखी ? यदि नहीं देखी तो विना देखे उसका बनाना अाकाश कुसुम की तरह असंभव है। दादाजी-ईश्वर निराकार है और साकार भी हैं, उस साकार ईश्वर की मूर्ति प्राचीन मुनि महर्षियों ने देखी, तब से परम्परा लोगों को मूर्ति का बोध होता आ रहा __ है, इसलिये उस मूर्ति के निर्माण में असंभवता कैसी ? काकाजी-महाराज, ईश्वर साकार है, इसमें प्रमाण क्या ? दादाजी-शास्त्र प्रमाण है, सुनो यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ गीता. अध्या० ४ श्लो० ७, ८] श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, इस पृथ्वी पर जब जब धर्म की होनि और अधर्म की वृद्धि होती है,तब तब मैं अपनी योगमाया के द्वारा अपनी आत्मा को प्रगट करता हूं, अर्थात् ईश्वर के विशेष अंशों को लेकर अवतार लेता हूँ। वह मेरा अवतार सजन पुरुषों की रक्षा के लिये होता है, आतताई (दुष्टों) के विनाश के लिये होता है और धर्म की स्थापना के लिये होता है, इस तरह मैं युग युग में प्रगट होता हूं। कोकाजी-महाराज, आपके कहे हुये इन गीता के श्लोकों में जिसको संशय हो या जिसको श्रद्धा नहीं हो तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) उसके लिये साकार ईश्वर नहीं है। दादाजी-निराकार के जैसा साकार ईश्वर भी सभी के लिये है, मगर जो नहीं मानता वह उसकी मूर्खता है और उपर्युक्त श्लोक जैसे मान्य वाक्यों में भी जिसको थक्षा नहीं होती और संशय होता है, उसको क्या होता है सुनोःअक्षश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ [गीता अ० ४ श्लोक ४०] अर्थात् जो श्रात्म-ज्ञान से रहित है, जिसको श्रद्धा नहीं है और जो संशयात्मा है यानी अच्छी बुरी प्रत्येक बातों में जिसको सन्देह बना रहता है वह नाश होजाता है, क्योंकि संशयात्मा को तो न यही लोक है न दूसरा लोक है और न सुख ही है। इसी तरह पक भावुक हृदय का भक्ति-भावित सरस उद्गार और सुनो जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ। मैं बौरी खोजन चली, रही किनारे बैठ॥ काकाजी-कुछ मन मुटाव होकर, महाराज-माज अब शाम होगई, श्राशा हो तो फिर कल अपने पाँचों मित्रों को लेकर आऊँ, अभी घर को जाता हूँ। दादाजी-बहुत अच्छा. जाइये, अब मुझे भी सन्ध्या, पूजा, पाठ, श्रादि करना है और कल आपकी तबियत में जचे तो ५ के अलावा दर्जनों अपने मित्रों को लावेंगे और अवश्य आयेंगे। काल" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) काकाजी घर को गये इनके साथ गाँव के और भी कितने प्रमुख व्यक्ति थे। गाँव में जाते ही लोगों ने इन सों से पूछा कि-कहिये क्या हुआ ?। काकाजी और दादीजी में तो आज खूष प्रश्नोत्तर हुअा होगा । सब ने उत्तर में कहा कि महात्मा दादाजी बड़े ही प्राभाविक विद्वान मालूम होते हैं, उन्होंने बड़ी बड़ो युक्तियों से काकाजी के मत को खण्डन कर दिया और वेद शास्त्र के प्राचीन मतों की स्थापना करदी, यहां तक कि मूर्ति पूजा को भी उन्होंने बड़ी योग्यता से सप्रमाण तकों के द्वारा सिद्ध कर दिया है। साम हो गया था इसलिये काकाजी ने योगीराजसे यह कहकर घर पाया कि-कल मैं अपने पांचों मित्रों के साथ प्रापसे इन प्रश्नों के विषय में बातचीत करने के लिये हाजिर होऊँगा । देखो, अब कल्ह क्या होता है ? उधर काकाजी को सारी रात नींद नहीं आई. क्योंकि जन्म भर से एक विकट पाखण्डपने को अपनाये हुये थे, वह अब दूर होना चाहता था। प्रभात होते ही काकाजी ने अपने उन पांचों ( श्रार्य, मुसलमान, इसाई, सिक्ख और जैन ) मित्रों से जाकर मिला और अपनी सारी राम कहानी कह सुनादी। मित्रोंने इन्हें खूब श्राश्वासन दिया और कहा कि-उसमें घबराने की कोई बात नहीं, हम लोग आज आपके साथ जरूर चलेंगे और जैसे बनेगा वैसे उन योगीराज दादाजी को खूब शास्त्रार्थ करके अवश्य हरायगे और हम लोग अपनी नई मानी हुई बात को ठीक ठीक सिद्ध करेंगे। समय को श्राते-जाते देर नहीं होती। काकाजी को दादाजी के पास जाने का समय हो गया । काकाजी सभी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) मित्रों के साथ प्रस्थान करने को तैयार हुये, साथ ही श्राज और भी गांव के लोगों की भीड़ भेड़ों की तरह बढ़ उठी । सब के सव चल दिये और थोड़े ही समय में वहां पहुँच गये जहां महान् विद्वान् सर्व शास्त्रपरिज्ञाता योगीराज दादा दीनबन्धुजी थे । सबने दादाजी को सप्रेम प्रणाम किया और दादाजी ने भी - सभी को उचित सत्कार के साथ बैठने को कहा: कुछ समय के बाद दादाजी ने काका कालूराम से पूछा 'कि - कहोजी काकाजी श्राज आपके वे मित्र भी श्रागये । -कालूराम क्रमशः अपने मित्रों का परिचय इस तरह कराया पहले आर्य छज्जूरामजी शास्त्री की तरफ देखकर महा- राज, आप आर्य समाज के प्रेसीडेन्ट है और प्रकाण्ड - पण्डित हैं, आपकी दलीलें मशहूर है और श्रापका शुभ नाम श्रीमान् छज्जूरामजी शास्त्री है । आप एक प्रसिद्ध आर्य समाजी हैं 'और स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी के बातों में आपको पूर्ण श्रद्धा है, एवं आप में सत्यार्थ प्रकाश की सभी बातें कूट कूट - कर भरी हैं । फिर मुसलमान मित्र की तरफ देखकर - श्रापका नाम मौलाना अब्दुल हुसेन है। आपने कुरान शरीफ में अच्छी तालिम हासिल किया है और आप अपने मज्भब के एक पक्क -फकीर हैं । फिर इसाई मित्र की तरफ इशारा करके - महाराज आप - का नाम हजरत मूसा मसीह है। आपको बाइबिल का अच्छा ज्ञान है | आप एक मशहूर पादरी हैं और आपको बाहरी ज्ञान भी काफी है। 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) इसके बाद सिक्ख मित्र की तरफ नजर करके-महाराज आपका शुभ नाम सरदार सेरसिंह है। श्राप गुरु नानक साहिब के और गुरु गोविन्दसिंह के परम भक्त हैं। आपको गुरुत्रों की वाणी में अतिशय श्रद्धा और प्रेम है। आप गुरु नानक रचित ग्रन्थों के अलावा और भी अच्छे अच्छे किताबों के तालिम पाये हैं। फिर तेरह पन्थी जैन ज्ञानचन्द्रजी की तरफ इशारा करके महाराज प्रापका शुभ नाम ज्ञानचन्द लूकण है। श्राप तेरह पन्थियों में प्रधान साधु श्री भिक्खु स्वामी और जीतमलजीमहाराज के सिद्धान्तों को अच्छी तरह जानते हैं। आप पक्के तेरह पन्थी श्रावक हैं। इस तरह काकाजी ने अपने उन. पांचों मित्रों से दादाजी को परिचित कराया। बाद में 'मूर्ति पूजा' विषय को लेकर वाद विवाद प्रश्नोत्तर का श्रीगणेश हुना। दादाजी-पहले छज्जूरामजी शास्त्री आर्य समाजी की तरफ नजर करके--क्यों; छज्जूरामजी, आप मूर्ति-पूजा . को तो मानते हैं ? आर्य छज्जूजी-नहीं, महाराज हम मूर्ति पूजा को नहीं मानते, क्योंकि मूर्ति जड़ है. अतः जड़ की पूजा से कुछ भी लाभ नहीं। दादाजी-महाशय, यह केवल कहने की बात है कि--हम मूर्ति पूजा को नहीं मानते, मगर पक्षपात को छोड़कर सच्चे दिल से विचार करें तो यही कहना पड़ेगा कि इस दुनिया में ऐसा एक भी मज्झन नहीं जो मूर्तिपूजा से अलग हो । आप लोग भी मूर्ति पूजा को मानते हैं । मूर्ति पूजा जड़-पूजा नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) आर्य छज्जूरामजी - नहीं महाराज, हम स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुयायी होकर मूत्ति-पूजा को कभी मान सकते हैं, कभी नहीं, बिलकुल नहीं। -दादाजी -- महाशय, यदि आप ज्ञानानन्द सरस्वती के बत्तों को ध्यान देकर विचार करें तो आपको कहना पड़ेगा कि मूर्ति-पूजा जड़-पूजा में शामिल नहीं है, बल्कि वह चेतन की पूजा कही जा सकती । आर्य - महाराज, यदि ऐसी बात है तो आप कोई दृष्टान्त देकर अच्छी तरह बतलावें । - -दादाजी - अच्छी बात है आप ध्यान देकर सुनिये - कि यदि आप दयानन्द सरस्वतीजी जैसे संन्यासी विद्वान् जो थकान में हों, उनकी सेवा करें तो क्या आपको उस सेवा का फल मिलेगा ? | आर्य- क्यों नहीं मिलेगा ? अवश्य मिलेगा । - दादाजी - शावश, यह सेवा जिसको आपने किया है, जड़ शरीर की ही सेवा किया है, तो फिर आप इसको फल क्योंकर मानते हैं ? आर्य- नहीं, महाराज, विद्वान् का शरीर जड़ नहीं है, उसमें तो जीवात्मा वर्तमान है । -दादाजी - ठीक है, आप शरीर में जीवात्मा के होने से चेतन की सेवा को मानते हैं और दुनियां भी मानती है, मगर दर असल में सेवा तो जड़ शरीर की ही होती है । क्योंकि जीवात्मा तो निराकार है फिर उसकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३१) सेवा केली ? और यदि किसी विद्वान् के शरीर में जीवात्मा को रहने से उनकी सेवा करनी श्राप की राय में ठीक है तो विश्व व्यापक ईश्वर की पत्थर आदि की मूर्तियों में भी विद्यमान रहने के कारण मूर्ति-पूजा ईश्वर-पूजा ही सिद्ध होती है, इसलिये उस विद्वान के जड़ शरीर की सेवा की अपेक्षा से ईश्वर की प्रतिमा की सेवा अनन्तगुण अधिक फल देने वाली सिद्ध होती है।। आर्य-महाराज, मूर्ति जड़ है और वह तो निर्माण कर्ताओं के हाथों का कौशल है। कोई भी मूर्ति हम को अच्छा या बुरा कुछ भी उपदेश नहीं देती, किन्तु विद्वान् साधु सन्तों से तो हमें प्रत्यक्ष सुन्दर धार्मिक उपदेश मिलता है। फिर आप विद्वान् के शरीर से जड़ मूर्ति की महत्ता का विशेष वर्णन क्यों करते हैं। दादाजी-महाशय, यदि आपको कोई अच्छे उपदेशक मिल जाय और वे सार्वजनिक हित उपदेश भी आपको दें, मगर आप उसे कुछ भी अपने ध्यान में नहीं लावे तो फिर उन अच्छे उपदेशों से क्या ? शास्त्र कहता है कि " मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः" अर्थात् संपार में बन्धन और मुक्ति (छुटकारा) का कारण मन ही है। इसलिये जैसे श्रापने अच्छे उपदेशको से सुन्दर उपदेश सुने मगर सुन कर उसे छोड़ दिया, यानी अपना अन्तस्तल से उसको नहीं अपनाया, मनन नहीं किया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) तो आपके लिये वे अच्छे उपदेश भी निरर्थक हुये और यदि सावधान होकर सुना और तदनुसार आचरण भी किया तो अमृत के जैसा वह उपदेश सिद्ध होता है। इसी तरह जो कोई श्रद्धा और प्रेम से मर्ति की पूजा करता है और कहता है कि हे सश्चिदानन्द घन ! हे परमात्मन् ! हे बीतराग देव ! हे परब्रह्म! हे भगवन! आप हमको इस सुदुस्तर संसार सागर से पार कराश्री, श्राप मेरी सारी विषय वासना को दूर कराओ और जिस से हमारा परम कल्याण हो ऐसी सुबुद्धि को वो, इत्यादि जी भक्ति-भाषना के द्वारा प्रभु के पास विनीत होकर पूजा करता है, उसे निर्मल वुद्धि होती है, चिन्त शान्त होता है और अनुदिन विशेष सुख का लाभ होता है। मगर जो कोई केवल यह कह कर कि-चलो, हटो यह पत्थर की मर्ति तो है, इस से क्या लाभ ? फिर ऐसे पुरुषों को मूर्ति कुछ भी लाभ दायक नहीं। आर्य-महाराज, ईश्वर तो निराकार है, फिर मूर्ति में ईश्वर को मानने से ईश्वर भी साकार हो जायेंगे अर्थात् जड़ हो जायेंगे। अतः ईश्वर की सेवा में मूर्ति कोई कारण नहीं है। दादाजी-भाई, ईश्वर निराकार हैं और साकार भी हैं। और मर्ति में ईश्वर की सत्ता को मानने से ईश्वर में जड़ता दोष नहीं होता, जैसे आकाश सभी जगह व्यापक रूप से-घट में, पट में, मठ में और देह में व्याप्त है, मगर वे घट पटादि चीजें आकाश कभी नहीं होती और न आकाश ही घट पट के रूप में हो जाता है। चूंकि निराकार ईश्वर का बोध केवल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) शानी को ही होता है और साकार का बोध साधारण जन को भी हो सकता है, इसलिये उस निराकार ही परमात्मा की सेवा पूजो मूर्ति के बिना साधारण जीवात्मा से कभी नहीं हो सकती, प्रतः परमात्मा की सेवा में मूर्ति कारण है। मार्य-भला, आप क्या कह रहे हैं,-परमात्मा की सेवा में जड़ मूर्ति को कारण मानने की क्या जरूरत है ? क्या केवल वेद के मंत्रों के द्वारा ही परमात्मा की पूजा प्रशंसा नहीं हो सकती? . दादाजी क्यों जी, आपके वेदों की ऋचा क्या चैतन्य है? वे भी तो जड़-अक्षरों के ही समूह है, इस तरह आपके कथनानुसार भी तो ईश्वर-पूजा का कारण जड़ (मूर्ति ) ही सिद्ध हुआ। मार्य-महाराज, हम उन जड़ मरों के द्वारा परमात्मा के गुणों को जपते हैं अर्थात् परमेश्वर को भजते हैं। दादाजी-हां, जैसे आपने जड़-अक्षरों से ईश्वर की स्तुति, या संस्मरण किंवा जाप किया, उसी तरह मूर्ति-पूजक भी मूर्ति के द्वारा ईश्वर को ही जाप, या स्मरण किंवा स्तुति को करते हैं। दर असल में बात दोनों की एक ही है मगर समझ में हेर-फेर है.। . आर्य-अच्छा , यह ठीक है कि वेद-जड़ है, मगर हम उससे प्रशंसा तो परमात्मा को ही करते हैं। दादाजी-अब देखो. क्यों जी, मर्ति पूजक मूर्ति में किस की पूजा करते हैं ? वे भी तो सच्चिदानन्द परमेश्वर को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . .. (३४) ही पूजते हैं, फिर बात तो यों की यों रही और वास्तव में विचार करें तो आर्यसमाजी लोग भी मूर्ति-पूजा को मानते हैं। मार्य-महाराज, माप यह क्या कह रहे हैं कि-आर्य समाजी लोग भी मूर्ति-पूजा को मानते हैं। क्या यह कभी हो सकता है? दादाजी-जी हाँ, आर्य समाज भी मूर्ति-पूजा को मानती है क्योंकि जब आर्यसमाज धर्म के सूत्रधार स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ही मूर्ति-पूजा मानी है तो उनके अनुयायियों का कहनो क्या ? आर्य-अररर ! भाप तो बड़ी गजब की बात कह रहे हैं, भला, स्वप्नावस्था में भी कभी कोई इस बात को मान सकता है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती 'मूर्ति-पूजा' को . मानते थे। दादाजी--जी हाँ, थोड़ा भी पढ़ा लिखा विचार घाला व्यक्ति स्वामीजी के मूलग्रन्थ को ही देखकर विना हिच. किचाहट के साथ यह कह सकता है कि स्वामीजी 'मूर्ति पूजा' को मानते थे और इस बात को हम श्रापको जागृतावस्था में ही समझाते हैं खूब ध्यान देकर सुनिये। आर्य--अच्छा , सुनाइये। दादाजी--सुमोजी, आप लोग वेदी को रचकर घृत आदि उत्तम पदार्थ से अग्नि में हवन करते हैं। सो क्या अग्नि पूजा, या जड़-पूजा वा मूति-पूजा नहीं है? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) अथवा यों कहो कि--अग्नि में ईश्वर की स्थापना. को मान कर पूजते हैं। आर्य-जी ना, हम स्थापना नहीं मानते, किन्तु यह मानते हैं कि-हवन करने से वायु शुद्ध होती है और वह हवनकी धूनां दूर तक पहुँच कर दृषित जल वायु को पवित्र करती है जिससे रोगों के कीटाणु न होते और लोगों का स्वास्थ वृद्धि रूप महा कल्याण होता है। दादाजी-महाशय, यदि हवन से वायु को ही शुद्ध करना है तो वेदी आदि बनाने की क्या जरूरत ? शिर्फ चूल्हे में ही घी आदि को डाल देने से घायु के संयोग से अपने आप सुगन्धि चारों ओर फैल जायगी। यदि थोड़ी देर के लिये वेदी पर हवन करना स्वीकार कर लिया जाय तो हवन करने के समय में वेद के मन्त्रों को पढ़ने की क्या जरूरत ? अतः सिद्ध हो गया कि जैसे मूर्ति-पूजा काल में मूर्ति-पूजक लोग ईश्वर की प्रशंसा में श्लोक स्तुति आदि को पढ़ते हैं, वैसे ही श्राप लोग भी ईश्वर की प्रशंसा में वेद-मन्त्रों को पढ़ते हैं और अग्नि-पूजा को करते हैं ।... आर्य-महाराज, स्वामी दयानन्द सरस्वनी ने अपने ग्रन्थों में मूत्ति-पूजा को खण्डन ही किया है और श्राप कहते हैं कि-स्वामीजी मूर्ति पूजा को मानते थे। दादाजी-क्यों, ऊपर जो हबन की बातें कहीं हैं, उसको स्वा. मीजी नहीं मानते थे ? कहना पड़ेगा कि स्वामीजी हवन के पक्के पुजारी थे। इस पर भी यदि दिल में पूरी तसल्ली न हुई तो कुछ और सुनिये और खूब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) - ध्यान देकर सुनिये - स्वामीजी ने 'सत्यार्थ - प्रकाश में fear है कि मन को स्थिर करने के लिये अपनी पीठ की हड्डी में ध्यान लगाना चाहिये। यह बात 'सत्यार्थप्रकाश' के. सातमां समुल्लास में शौच सन्ती-पतपः स्वाध्यायेश्वरः ।" इस योग दर्शनसूत्र की व्याख्या में लिखी है और वहां उपयुक्त सूत्र के विशेष व्याख्यान में लिखा है कि "जब मनुष्य उपासना करना चाहे तब एकान्त देश में आसन लगा कर बैठे और प्राणायाम की रीति से बाहरी इन्द्रियों को रोक कर मन को नाभिदेश में रोके वा हृदय, कण्ठ, नेत्र, शिखा श्रथवा पीठ के मध्य हाड ( हड्डी ) में मनको स्थिर करे" । अब यहां शोचने और समझने की बात है कि स्वामीजी की हड्डी- पूजा से तो भगवान् की 'मूर्त्ति पूज' कहीं अच्छी है, क्योंकि पीठ की हड्डी में ध्यान करने से जो लाभ होगा उससे हजारों गुण अधिक लाभ परमात्मा की मूर्ति में ध्यान को लगाने से होगा, बस, इससे यह सिद्ध हुआ कि मूर्त्ति पूजा से कोई भी व्यक्ति अछूता नहीं है और प्रत्येक श्रार्य का यह परम आवश्यक कर्त्तव्य है कि वे प्रतिदिन भव्य -- भाव-भक्ति से अपना इष्टदेव की मूत्ति की पूजा करें । आर्य-कुछ विनीत होकर, महाराज, निराकार चेतन ईश्वर का बोध साकार जड़ ( मूत्ति ) से कैसे हो सकता ? दादाजी - सुनियेजी, आप इस बात को तो अच्छी तरह जानते हैं कि जब लड़के स्कूल में पढ़ने के लिये जाते हैं तब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) उन्हें रेखागणित की पुस्तके भी पढ़नी पड़ती है, जिनमें रेखा और बिन्दु श्रोदि की परिभाषा निराकार सी प्रतीत होती है। मगर बहुतेरे लड़के रेखागणित में प्रवीण होकर भूगोल, खगोल, भगोल प्रादि की चमत्कारिक गूढ़ कठिन बातें प्रत्यक्ष कर लेते हैं। इसी तरह यथाकथित पूजा-ध्यान आदि के द्वारा साकार मूर्ति से निराकार ईश्वर का बोध होता है। आर्य-महात्मन्, रेखा और बिन्दु की बात अच्छी तरह समझ में नहीं पाई. अतः कृपया फिर इसको विस्तार पूर्वक समझा। बादाजी-अच्छी बात, सुनिये-मानलीजिये कि किसी खड़के ने अपने माष्टर से रेखामणित के पाठ के समय में पहले यही प्रश्न पूछा कि माष्टर साहिब, रेना किसे कहते हैं ? माष्टर ने उत्तर में कहा-जिस में लम्बाई हो और मोटाई नहीं हो उसे 'रेखा' कहते हैं। इस उत्तर को सुन कर लड़का अपने मन में शोचने लगा भला माष्टर साहब क्या कह रहे हैं, क्या ऐसी भी कोई चीज हो सकती है जिस में लम्बाई हों पर मोटाई नहीं? ऐसा कभी नहीं हो सकता, मोलुम होता है कि माष्टर साहब हम को कुछ कह कर प्रतार (पहला) रहे हैं, लड़का होसियार था, उसके हृदय में बह बात नहीं बैठी उसने फिर माष्टर से पूछा:-माष्टर साहब, आपने जो उत्तर में कहा। वह ठीक नहीं जचता, क्योंकि ऐसी तो कोई चीज ही नजर में नहीं माती-जिस में लम्बाई हो किन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) मोटाई नहीं हो, तब रेखा कैसे बन सकती ? . माष्टर साहब ने उत्तर दिया कि-प्यारे, अनेक बिन्दुओं के संयोग से रेखा बनती है। लड़का ने फिर पूछा-माष्टर साहब, "बिन्दु" किसे कहते है माष्टर ने उत्तर में कहा-जिसका स्थान नियत हो, परिमाण (माप, तौल) न हो और विभाग न हो उसे 'बिन्दु' कहते हैं। - लड़का बिन्दु की परिभाषा को सुन कर अपने मन में विचार करने लगा कि-अररर, गजव है, कहो ऐसा कौन पदार्थ है, जिसका स्थान तो निश्चित है मगर परिमाण और विभाग नहीं है, इसलिये 'बिन्दु' की परिभाषा ही गलत है। मैं ठीक कहता हूँ कि माष्टर साहबं मुझे कुछ कह कर ठग रहे हैं, क्योंकि, पहले जब मैंने रेखा की परिभाषा पछी, तब उसका असंभाव्य ही उत्तर दिये और इस पर भी तुर्रा यह कि रेखा के स्वरूप को व्यक्त करने के लिये बिन्दु के संयोग को ग्रहण करते हैं। अब जब कि बिन्दु की ही सिद्धि असम्भव है तब उस बिन्दु के द्वारा जिसको सिद्ध करना है वह तो सुतरां असम्मध है। इस तरह अपना मन में तर्क वितर्क ले सिद्ध कर लिया कि जब रेखा और बिन्दु, दोनों की परिभाषा ही गलत है, तब उस रेखा गणित के गलत होने में सन्देह कैसा ? लड़के के दिल में रेखाकी परिभाषापर जब पूरी तसल्ली नहीं हुई, तब उसने फिर मास्टर से पूछा कि-मास्टर साहब, रेखो की परिभाषा ही गलत है। क्योंकि बिन्दुओं के संयोग से रेखा का स्वरूप बनता है, मगर बिन्दु का स्वरूप भी तो ठीक ठीक. नहीं बन सकता, इसलिये रेखागणित भी ठीक नहीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) माष्टर साहब शिक्षा देने में प्रथम श्रेणी के विद्वान थे, लड़के के मन में श्रद्धा को देखकर उन्हें अधिक सन्तोष हुआ और हंसते हुये मार साहब ने लड़के से कहा- प्यारे, भोले भावुक, कितनी भूल खा रहे हो, तुम अभी अपने दिल की शंका को छोड़ दो और मैं जो कुछ कहता हूँ उसे सावधान होकर सुनो, फिर मनन करो तो ये तुम्हारी शंकायें थोड़े ही दिनों में दूर हो जायगीं, जब कुछ आगे पढोगे । लड़का सुशील, श्रद्धालु और होनहार था । लड़का ने मार की बातें मानली और विनीत होकर कहा कि – अच्छी बात, अब आप रेखा को अच्छी तरह समझाने की कृपा करें । माष्टर ने तुरत ही कागज पर पेन्सिल लेकर एक सीधी लकीर श्र -उ-- -ई ऐसी खींच दी और लड़के से कहा- देखो, यह 'श्र उ ई' रेखा है । श्र और ई ये दो चिन्ह रेखा का प्रान्त ( छोर या आखरी जगह ) है जहां बिन्दु होती है और उ रेखा का मध्यस्थान ( बीच की जगह ) है । इन बातों को मेरे कथनानुसार तुम पहले मानलो और श्रागे पाठ को लेते जाओ तो शीघ्र ही तुम्हें रेखा का ज्ञान हो जायगा । लड़के ने वैसा ही किया जैसा मार ने कहा, अनन्तर थोड़े ही दिनों में वह लड़का रेखा गणित में प्रवीण हो गया और उसकी सारी शंकायें जाती रहीं । फिर दादाजी ने छज्जूराम श्रार्य से कहा कि सुनिये छजूरामजी, जैसे उस लड़के को पहले गुरु की बात माननी पड़ी और पीछे शीघ्र ही रेखा का ज्ञान और रेखागणित का ज्ञान हुआ, उसी तरह श्रागम शास्त्र और ▬▬▬▬▬▬ सज्जन पुरुषों से कही हुई मूर्त्ति पूजा को जो कोई श्रद्धा से : मानता है तो थोड़े ही दिनों में उसका सात्विक स्वभाव बढ़ने लगता और कल्याणमय ज्ञान का उदय होने लगता जिससे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) निराकार ईश्वर का बोध हो जाता है और अन्त में परम शान्ति मिलती है। और भी सुनिये और अपने मन में गुनिये कि-श्रापके कथनानुसार ईश्वर निराकार है, मगर साकार ॐ पद में ईश्वर का समावेश हो जाता है, इसलिये निराकार साकार हो सकता है और साकार से निराकार का बोध हो सकता है। एवं श्राप ईश्वर को सर्व व्यापक मानते हैं और मानते हैं कि परिछिन्न प्रतिमा में उसका समावेश नहीं हो सकता, मगर आपको शोचना चाहिये कि जब सर्व व्यापक ईश्वर एक छोटा-सा ॐ पद में आ सकता है, तब यह मूर्ति में नहीं आ सकता क्या ? इसी तरह जब एक छोटासा ॐ शब्द सर्व व्यापक विभु का पोध करा सकता तप फिर मुर्ति क्योंकर नहीं करा सकती? जैसे निराकार ईश्वर को ॐ के रूप में लिखा या माना जाता है इसी तरह पत्थर या धातु की प्रतिमा में यदि ईश्वर की स्थापना मान ली जाय तो आपत्ति क्या? आप मानते हैं कि ईश्वर-बान निराकार है, मगर साकार जड़ वेदादि पुस्तकों में भी तो ईश्वर का ज्ञान मानते हैं, पाप अब पक्षपात को छोड़कर मध्यस्थ बुद्धि से विचार करके श्राप ही कहिये कि यह स्थापना नहीं तो और क्या है ? इसलिये प्रापको अवश्य मानना पड़ेगा। निराकार ईश्वर के ज्ञान की स्थापना साकार वेदों में हुई हैं और निःसंदेह ईश्वर का शान अनन्त है, मगर प्रमाण वाले शास्त्रों में तो इसकी स्थापना अवश्य करनी पड़ती है, अथवा यों कहना पड़ता है कि वेदों में ईश्वर का शान है। इस तरह यदि निराकार ईश्वर की मति बनाली जाय तो क्या दोष है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) और भी सुनिये कि-"आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब" के बनाये हुये स्वामी दयानन्दजी के "जीवन-चरित्र" के पृष्ठ ३५६ में लिखा है कि-"ईश्वर का कोई स्वरूप नहीं है, परन्तु जो कुछ इस संसार में दृष्टि गोचर हो रहा है वह सव ईश्वर का ही स्वरूप है इससे साफ मालूम होता है कि प्रतिमा भी ईश्वर का ही स्वरूप है क्योंकि जब संसार की सभी वस्तु परमात्मा का रूप है तब परमात्मा के रूप से प्रतिमा अलग रह गई क्या? भार्य-महाराज, जड़ (प्रतिमा) की पूजा करने से चेतन का शान कभी नहीं हो सकता, अतः प्रतिमा पूजा निरर्थक है। दादाजी-पाहजी, आपका जब ऐसा ही ख्याल है तष जड़ घेदों से ईश्वर का ज्ञान नहीं होना चाहिये, मगर आपका दृढ़ विश्वास है कि वेदों से ईश्वर का ज्ञान होता है हम पूछते हैं कि वेद अपने पाप शान कराने में समर्थ है ? या श्रादमी अपनी बुद्धि से छान प्राप्त करता है? यदि आप कहें कि वेद ज्ञान देने में स्वयं समर्थ है तो ऐला कथन कभी सत्य नहीं, क्योंकि जब ऐसा ही हो तो कितने मूर्ख बुक्सेलरों को ईश्वर का ज्ञान हो जाना चाहिये, मगर ऐसा दीखने में एक भी नहीं आता अर्थात् वेद जैले पुस्तकों को अपने पास रखने वाले. अनेक हैं मगर वेद सम्बन्धी शान तो विरक्षा ही किसी पण्डित प्रकाण्ड को होता है। यदि कहें कि अपनी बुद्धि से ज्ञान-प्राप्त होता है तो उस तरह प्रतिमा से भी शान प्राप्त हो सकता है, इसलिये जड़ वेदादि पुस्तकों की तरह मूर्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) की भक्ति से बहुत कुछ लाभ हो सकता है अतएव प्रतिमा पूजा सार्थक है। मार्य-महाराज, जड़ पत्थर की मूर्ति को देखने से, पूजा करने से निरन्तर ध्यान करने से मूर्ति पूजकों में जड़ता प्रा. जो सकती है, अन्त में परिणाम यह होगा कि मूर्ति.. पूजक भी जड़ हो जायेगे। दादाजी-वाहजी वाह, आपके तर्क और बुद्धि की बलिहारी है, जरा शोचो तो सही-एक मूर्ख भी समझ सकता है कि स्त्री की मूर्ति को देखकर काम तो अवश्य उत्पन्न होता है मगर वह देखने वाला पुरुष स्त्री नहीं बन जाता। इसी प्रकार भगवान् की शान्त दान्त मूर्ति को देखकर मूर्ति पूजक को हृदय शान्त दान्त हो जाता है और ईश्वर के पवित्र गुण कर्म स्वभाव जैसे उसका भी गुण कर्म स्वभाव पवित्र हो जाता है और यदि आपका वैसा ही विश्वास है तो आप जड़ ॐ पद को अनेक बार जप, ध्यान किये होंगे फिर भी जड़ नहीं बने। आर्य-विनीत होकर महात्मन्, मूर्ति तो जड़ है फिर उस जड़ से चेतन ईश्वर का ज्ञान कैसे होता ? दादाजी-महोदय, हम जड़ मूर्ति से चेतन का काम नहीं स्वीकार करते, क्योंकि परमात्मा की मूर्ति जो कि जड़ है, केवल उत्तम भावों को जो कि वह भी जड़ ही है, उत्पन्न करने वाली है। शास्त्र और मूर्ति परस्पर जुगराफिया और चित्र की तरह सम्बन्ध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखती है। जिसमें शास्त्र तो जुगराफिये की तरह विरागभाव और भगवान् के स्वरूप का वर्णन करने पाला है और प्रतिमा ही इसकी मूर्ति बनाई हुई है और जिस प्रकार शास्त्र जड़ है मगर उत्तम भावों के. उत्पन्न करने वाला है उसी तरह मूर्ति भी जड़ अवश्य है, लेकिन अच्छे भावों को (जिन से ईश्वरीय ज्ञान होता है) उत्पन्न करने वाली है, और इस विशाल संसार में ऐसा एक भी मत नहीं है जो मूर्ति पूजा को किसी न किसी प्रकार नहीं मानता हो। यदि कोई किसी मत के व्यक्ति जड़ (पत्थर) मूर्ति को नहीं मानता होगा तो वेद, कुरानशरीफ, अंजिल, बाइबिल श्रादि अपने धार्मिक पुस्तकों को जो कि जड़ रूप (साकार) है मान और सम्मान अवश्वमेव करता होगा। आर्य-महात्मन् , पत्थर की बनी हुई गौ कभी दूध नहीं देती इसलिये जड़ मूर्ति की पूजा से चेतन ईश्वर का शान कभी नहीं होगा और न कुछ दूसरा हो लाभ होगा। दादाजी-यह आपको बड़ी भूल है कि पत्थर की गौ दूध नहीं देती, यदि थोड़ा भी विचारे तो आप कह सकते हैं कि पत्थर (जड़) की गौ वास्तविक गौ से भी कहीं कहीं अफिक फायदे मन्द है, अच्छा; ध्यान देकर सुनियेशिलाजीत, मकरध्वज आदि रसायन और ब्राह्मी आदि बूटियां जड़ पदार्थ है मगर इसके सेवन से लोगों के अनेकों रोग नष्ट होकर शरीर नौरोग और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) इन उप - बलिष्ट हो जाता है, अथवा यों कहें कि युक्त रसायनों में गौ दूध से कहीं अधिक गुण है और बुद्धि बढाने की शक्ति है, इसलिये आपको यह मानना पड़ेगा कि उपर्युक्त रसायन रूप जड़ गौ की मेवा से वास्तविक गौ की अपेक्षया कितनी अधिक चेतनता या फायदा पहुंचता है और भी सुनिये - आत्मा का गुण ज्ञान है, अतः श्रात्मा ही सभी पदार्थों को देख सकता है, आत्मा ही सभी बातों को सुन सकता है, आत्मा ही सभी गन्धों को सूंघ सकता है, आत्मा ही सभी स्पृश्य पदार्थों को स्पर्श कर सकता है, श्रात्मा ही सभी भोज्य पदार्थों को अश्वादन कर सकता है, भात्मा ही चल सकता है, और आत्मा ही हाथ का काम कर सकता है, लेकिन ऊपर के सभी बातों के सम्पादन करने में श्रात्मा को उन उन इन्द्रियों की सहायता अवश्य लेनी पड़ती है । जब किसी कारण से कोई - इन्द्रिय विकृत होकर उस इन्द्रिय जन्य कार्य को करने में असमर्थ हो जाती है तब अकेला आत्मा ही उस कार्य को करने में कभी सफल नहीं होता, जैसे:- किसी कारण विशेष से किसी की आंखे विनाश हो गई तो यह व्यक्ति किसी तरह भी पदार्थ को नहीं देख सकता । अब श्राप को इस पर पूर्ण विचार करना चाहिये कि वह व्यक्ति जिसकी जड़ श्रांखें गायब हो गई और चेतन श्रात्मा विद्यमान है चीजों को क्यों नहीं देखता । वास्तविक विचार से यहीं कहेंगे कि जड़ श्राखों के नहीं होने से ही चेतन श्रात्मा पदार्थ को नहीं देख सकता । -इसी तरह कान, नाक, हाथ और पैर आदि इन्द्रियों को बिल- कुल खराब हो जाने से श्रात्मा उन उन इन्द्रियों के द्वारा किये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) जानेवाले धर्मों (सुनना, सूंघना, चलना-फिरना आदि) को नहीं कर सकता, अतः अब अप ही पक्षपात को छोड़ कर विचार पूर्वक कहें कि जड़ से चेतन को कितना लाभ होता है । इसलिये मेरे प्यारे श्रार्य महोदय ! तथा अन्य भावुक श्रोतृगण ! यदि आप लोग पक्षपात को छोड़ कर न्याय की दृष्टि से पूर्वोक्त मेरे युक्तियों और प्रमाणों को अच्छी तरह विचार करें तो मूर्तिपूजा अवश्यमेव मानेंगे और जनता में अपने बाहुओं को ऊपर उठाकर कहेंगे कि भाइयों ! 'मूर्ति-पूजा' वास्तव में ठीक है सर्व जनहित कारक है इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन यथासमय सुरुचिपूर्ण भाव- भक्ति से 'मूर्ति पूजा' अवश्य करनी चाहिये । अनन्तर, काका कालूरामजी और श्रार्य छज्जूरामजी दोनों ने हाथ जोड़ कर अति विनीत भाव से दादाजी को कहा महात्मन् ! अब हम लोग इस बात को मानते हैं कि 'मूर्त्ति - पूजा' अवश्य करनी चाहिये और इस बात को भी सादर स्वीकार करते हैं कि निराकार ईश्वर की मूर्ति ( प्रतिमा ) बन सकती है, क्योंकि इस बात के न मान ने में हम लोगों की जितनी शंकायें थीं वे सब की सब आप की युक्तियों के द्वारा दूर होगई, मगर अब सबाल शिर्फ इतना है कि आप कृपा करके वेदों के मन्त्रों से यह सिद्ध करके दिखलावें कि- वेदों में भी निराकार ईश्वर के साकार रूप होने का वर्णन है, क्योंकि वेदों में हम लोगों की अधिक श्रद्धा और विश्वास है । दादाजी - अच्छा जी, साहब, अब आपके कथनानुसार मैं वेदों के प्रमाणों से निराकार ईश्वर के साकार स्वरूप को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) और 'मूर्ति-पूजा' को सिद्ध करके बतलाता हूँ, खूब ध्यान देकर सुनियेपुरुष सूक्त का प्रथम मन्त्र है कि"सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपाद् । स भूमि सर्वतः स्मृत्वात्यतिप्ठदशाङ्गुलम् ॥" (यजुर्वेद) । भावार्थ-उस विराट रूपधारी ईश्वर के अनेक शिर हैं, अनेक पाखें हैं और भनेक पैर हैं। विराट रूपधारी परमेश्वर सभी ओर से पृथिवी को स्पर्श करता हुआ विशेष रूप से दश अंगुल के बीच में रहता है, अर्थात् नाभि से हृदय तक रहता है। और भी सुनों नमस्ते रुद्र, मन्यव उतोत इषवे नमः। बाहुभ्यामुतते नमः। , (अजुर्वेद, अध्याय १६, मंत्र ४८) भावार्थ-हे रुद्र ! ( दुष्टों को रुलाने वाले ईश्वर !) आपके क्रोध को और बाण को नमस्कार हो और आपके दोनों भुजाओं को मेरा प्रणाम हो। अब यहां रूद्र रूप ईश्वर के बाहुओं की स्तुति की गई है, और प्रथम मंत्र में विराट रूप ईश्वर के मुख, हाथ, पैर श्रादि का वर्णन है। और भी सुनिये "या ते रुद्र ! शिवा तनूरघोरापापकाशिनी तया नस्तन्वासन्तमया गिरिशं चाभिचाकशीहि" (यजु० अध्याय० १६, मंत्र ४६) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) भावार्थ-हे रुद्र ! तुम्हारी जो मूर्ति कल्याण करने वाली सुन्दर और पवित्र है, उसके द्वारा हमाग कल्याण बढ़े। - यहां भी 'तनू' शब्द से ईश्वर की साकारता साफ साफ है। और भी सुनिये "व्यम्बकं यजामहे सुगिन्धं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्" । . ( यजुर्वेद, अध्याय ३ मंत्र ६) इसका निरुक्त में इस तरह व्याख्यान है[त्रीणि अम्बकानि यस्य स ऽयम्बको रुद्रस्तं यजामहे सुगन्धिं (सुष्टु गन्धि) पुष्टिवर्धनम् (पुष्टिकारकम्) इव, उर्वारुकमिव फलं बन्धनात्--प्रारोधनात् मृत्योः सकाशात् मुश्चस्व मां कस्मादिति-एषाम्-इतरंषाम् पराभवति ] ___ इसी तरह महीधर श्रादि वेद टीकाकारों ने भी उपयुक मंत्र की व्याख्या की है। ___ ऊपर के व्याख्यान का भावार्थ:-हम तीन नेत्र वाले शिवजी की पूजा करते हैं, सुगन्धित पुष्टिकारक पका हुमा खरबूजा जिस तरह अपनी लता से अलग हो जाता है, उसी तरह हमको मृत्यु से अलग करके मोक्षपद की प्राप्ति कराइये। इससे भी ईश्वर की साकारता सिद्ध होती है, क्योंकि नेत्रों का होना शरीर के विना असम्भव है। और भी सुनियो"नमस्ते नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीदुषे। अथो ये अस्त्र सत्वानो हन्तेभ्योऽकरनमः ॥" ___(यजु० अ० १६ मंत्र ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) भावार्थ:-नीलकण्ठ, सहस्रनेत्र से संपूर्ण जगत् के देखने वाले इन्द्ररूप वा विराट रूप, सेचन में समर्थ पय॑न्य (मेघ) रूप वा वरुणरूप रुद्र के लिये नमस्कार हो। और इस रुद्र देवता के जो अनुचर देवता है उनको भी मैं नमस्कार करता हूँ। यहां भी सहस्र नेत्रों का होना और नीलग्रीवा होना ईश्वर की साकारता को ही सिद्ध करता है। और भी सुनिये:"प्रमुञ्च धन्धनस्त्वमुभयोरायोाम । याश्च ते हस्त इषवः पराता भगवो वप" | (यजुर्वेद, अध्याय १६ मंत्र) मावार्थ:-हे षडेश्वर्य सम्पन्न ! भगवन् ! आप अपने धनुष की दोनों कोरियों में स्थित ज्या (धनुष की डोरी) को दूर करो अर्थात् उतार लो और आपके हाथ में जो बाण है उनको भी दूर त्याग दो और हमारे लिये सौम्य स्वरूप हो जाओ। इससे भी ईश्वर की साकारता सिद्ध होती है, क्योंकि शरीर के बिना हाथ, पैर आदि का होना असम्भ है। ... और भी सुनिये: "नमः कपर्दिने च" (यजु० अध्या० १६ मंत्र २६) भावार्थ:-कपर्दी अर्थात् जटाजूट धारी ईश्वर को नमस्कार हो। यहाँ भी ईश्वर की साकारता कही गई है, क्योंकि शिर के विना जटायें नहीं हो सकती। और भी श्रवण कीजिये: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) एषोह देवः प्रदिशोऽनुसर्वाः पूर्वोहजातः स ह गर्भ अंतः। स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतो मुस्खः । (यजु० अध्या० ३२) भावार्थ:-यह जो पूर्वोक ईश्वर सबही दिशा विविशाओं में नाना रूप धारण करके ठहरा हुमा है, वही सृष्टि के प्रारम्भ में हिरण्यगर्भ रूप से उत्पन्न हुआ और वही गर्भ के भीतर आया और वही उत्पन्न हुमा पळू वही फिर उत्पन्न होगा जोकि सबके भीतर (अन्तःकरणों) में ठहरा हुमा है और जो अनेक रूप धारण करके सभी ओर मुखों वाला होरहा है। - इससे तो ईश्वर का शरीरधारी होना एक दम साफ है। और भी सुनिये"आयो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वषिरुणुसे पुरूणि"। (अथर्ववेद ।५।१।१२) भावार्थ:-हे ईश्वर ! जिन मापने सृष्टि के प्रारम्भ में धर्मों की स्थापना की, उन्हीं मापने बहुत से वपु (शरीर) अवतार रूप धारण किये हैं। इससे भी ईश्वर के शरीर का होना सिद्ध होता है। और भी सुनिये"पहश्मानमातिष्टाश्मा भवतु ते तनूः"। (अथर्वण वेद ।२।१२।४) भावार्थ:-हे ईश्वर ! तुम प्रोमो और इस पत्थर की मूर्ति में स्थित होजामो और यह पत्थर की मूर्ति तुम्हारी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) तनू (शरीर) बन जाय । 4. इसकी पुष्टि में उपनिषद् और ब्राह्मण आदि वेद व्याख्याश्र के सैकड़ों प्रमाण मिल सकते हैं। इससे भी ईश्वर की साकारता सिद्ध होती है । और भी सुनिए: " श्रादित्यै गर्भ पयसा समधिः सहस्रस्य प्रतिमां विश्वरूपम्। परिवृधि हरसामाभिमंस्थाः । शतायुषं कृणुद्दि चीयमानः ॥ 19 mi भावार्थ:- सहस्र नामवाला जो ईश्वर है. उसकी स्वर्णादि धातुग्रों से बनाई हुई मूर्ति को पहले अग्नि में डाल कर उसका विकार (मल) दूर करना चाहिये, अनन्तर उस ईश्वर की मूर्ति को दूध से धोना और शुद्ध करना चाहिये, क्योंकि, विशुद्ध स्थापना की हुई मूर्ति प्रतिष्ठाता पूजक-पुरुष को दीर्घायु और बड़ा प्रतापी बनाती है । इससे भी ईश्वर की साकारता और मूर्त्ति पूजा सिद्ध है, आशा है कि अब आप उपर्युक्त वेद के मंत्रों के भावार्थ के ऊपर अच्छी तरह ध्यान देंगे तो आपको ईश्वर की साकारता और मूर्ति पूजा पर अतिशय श्रद्धा और दृढ विश्वास अवश्यमेव होगा खैर कुछ और भी सुनिये - "यदा देवतायतनानि कम्पन्ते दवताः प्रतिमा हसन्ति रुदन्ति नृत्यन्ति स्फुटन्ति विद्यन्ति उन्मीलन्ति निमीलन्ति । ... "अथर्वण वेद ..........” | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) भावार्थ - जिस राजा के राज्य में शयनावस्था में वा जागृतावस्था में ऐसा प्रतीत हो कि देव मन्दिर काँपते हैं, तो देखनेवालों को कोई दुःख अवश्य होगा, और वह बात उस देश के राजा के लिये भी अच्छी नहीं, अर्थात् राजा को भी कष्ट होगा । इसी तरह देवता की मूर्ति, यदि हंसती, रोती, नाचती, अङ्गहीन होती, आंखों को खोलती वा बन्द करती हुई किसीको दृष्टिगोचर हो तो समझना चाहिये कि शत्रु की ओर से कोई न कोई कष्ट अवश्यमेव होगा । इससे भी ईश्वर की साकारता और प्राचीन समय, मूर्ति का होना साफ साफ प्रकट होता है । श्राज्जूराम शास्त्री और काका कालूराम ने विनीत होकर फिर दादाजी से बोला: - 1 दादाजी, आपकी निःशंक युक्तियों और वेदों के प्रमाणों से तो हम लोगों की 'मूर्ति-पूजा' मानने में अब कुछ भी सन्देह नहीं रहा, मगर सवाल अब यह है कि क्या 'धर्म संहिता' (स्मृति शास्त्र) में भी 'मूर्ति पूजा' का विधान है ? क्योंकि धर्म संहिता पर भी हम लोगों की अधिक श्रद्धा है, इसमें जहाँ तक' दो. सके 'मनुस्मृति' का ही प्रमाण होना चाहिए, क्योंकि सभी स्मृतियों में केवल मनुस्मृति ही हमें विशेष रूप से प्रामाण्य है । दादाजी -कुछेक मुसकुरा कर अच्छाजी, सुनिये : "मैत्रं प्रसाधनं स्नानं दन्तधावन-मज्जनम् । पूर्वाह्न एव कुर्वीत देवतानाञ्च पूजनम् ॥” ( मनुस्मृति, अध्याय ४ श्लोक १२५ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) भावार्थ:-शौचादि स्नान और दातन आदि करना और देवताओं का पूजन प्रातः काल में ही करना चाहिये । इस मनुस्मृति के श्लोक से देवताओं की पूजा से मूर्ति पूजा ही. सिद्ध होती है। और भी सुनिये:.'नित्यं स्नात्वा शुचिःकुर्याद् देवर्षि-पितृ-तपर्णम् । देवताभ्यर्चनं चैव समिदाधानमेष च ॥ (मनुस्मृति अध्याय ४ श्लोक ) भावार्थ:-प्रतिदिन स्नान करके पवित्र होकर देष, ऋषि . तथा पितरों का तर्पण अपने अपने गृह्यसूत्र (पारस्पर गृह्य.. सत्रादि) के अनुसार करना चाहिए, अनन्तर शिव विष्णु मादि देव प्रतिमाओं के संमुखा पूजन करना चाहिये, फिर विधि पूर्वक समिाधान (हवन) कर्म करना चाहिये । इससे भी मूर्ति की पूजा की सिद्धि होती है। मार्य-महात्मन्, हम लोग 'देवताभ्यर्चन' शब्द से माता, पिता और गुरु भादि का आदर सत्कार को मनाते हैं। बाबाजी नहीं जी, आपका यहां यह मानना भारी भूल है क्योकि मनुस्मृति के द्वितीया ध्याय में माता, पिता,. गुरु आदि मान्यों की पूजा, श्रादर, सेषा भादि अलग अलग कही है, इसलिये उस अर्थ को यहाँ नहीं ले सकते। मार्य-महात्मन् , खेर यह बात भी श्राप की हम ने मान ली, मगर 'पवना अर्चन' शब्द से “ देवताओं की मूर्तियों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) की सम्मुख पूजा" भाप अर्थ करते हैं यहां पर मूर्ति तो अपनी तरफ से अधिक जोड़ते हैं। .. . वादाजी नहीं जी, नहीं, मैं अपनी तरफ से कुछ नहीं फर माता मैंने तो शास्त्रों की बाते ही आप से कहीसुनिये-पाणिनीय व्याकरण, अष्टाध्यायी के अध्याय ५ पाद ३ सूत्र 88 के अनुसार घासुदेव और शिव की प्रतिमाओं का नाम भी "कन्" . प्रत्यय का "लुप" होने पर वासुदेव और शिव ही होता है। इसी तरह देवताओं की प्रतिमाओं का नाम भी 'कन्' का 'लुप' हो जाने पर "देवता" ही कहा जा सकता है। जैसे" देवतायाः प्रतिकृतिर्देवता, तस्या अभ्यर्चनं देवताम्यर्चनम्" अर्थात् देवता की प्रतिमा देवता कही जा सकती और उसके सम्मुख होकर जो पजन उसे "देवताभ्यर्चन" कहते हैं। इसलिये मनुस्मृति में कहे हुये 'देवताभ्यर्चन' शब्द का स्पष्ट अर्थ यह है कि नियम पूर्वक पवित्र होकर शिव, विष्णु श्रादि देवमूर्तियों की पूजा अवश्यमेव करनी चाहिये। एवम् मनुस्मृति के टीकाकारों की राय भी देव-मूर्तियों के पूजने में ही है, जैसे(१) गोविन्दराजः-(देवतानां हरादीनां पुष्पादिनाऽर्चनम् ) । (२) मेधातिथि:-(अतः प्रतिमानामेव एतत्पूजन विधानम् )। (३) कुल्लूकभट्टः-(प्रतिमादिषु हरि-हरादि-देव-पूजनम् )। (४) सर्वज्ञनारायणः-(देवतानाम् अर्चनं पुष्पाद्यः)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) भावार्थ:-(१) पण्डित गोविन्दराजजी का कहना है कि यहां देवता शब्द से शिव.आदि देवता हैं और पुष्प आदि से उनके पूजन का नाम " देवताभ्यर्चन" है। ..' भाषार्थ:-(२) मेधातिथि कहते हैं कि "देवताभ्यर्चना शब्द का अर्थ प्रतिमाओं का ही पूजन अभीष्ट है। इसी तरह (३) (४) पण्डित कुल्लूक भट्ट और सर्वज्ञ नारायण को उपयुक्त अर्थ ही स्वीकार है। अतः एव इन प्रमाणों से देवताओं की पूजा करने से मूर्ति-पूजा ही सिद्ध होती है । आर्य-महात्मन् , हमारे धर्म शास्त्रों में तो देवताओं का अर्थ विद्वान् माना गया है, क्योंकि " शतपथ ब्राह्मण" में लिखा है कि “विद्वान्सो वै देवाः" अर्थात् विद्वान् ही देवता है, इसलिये 'देव-मूर्ति' का अर्थ शिव आदि देवता की प्रतिमा आपका कहना बिलकुल ठीक नहीं मालूम होता। दादाजी-सुनिये साहब, आप यहां पर देव शब्द का अर्थ विद्वान् नहीं कर सकते, क्योंकि "विद्वान्सो वै देवाः” यह "शतपथ ब्राह्मण " का वाक्य है, मगर इसी शतपथ के छुट्टी कण्डिका में “मीनावतार" का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है, इसलिये जब श्राप अवतार को मान लियो तो 'मूर्ति-पूजा' को स्वीकार करना अपने आप सिद्ध होगया और दूसरी बात यह है कि यदि यहाँ आप देवता शब्द का अर्थ विद्वान मानेंगे तो प्रातःकाल में ही विद्वान की पूजा करनी चाहिये यह असंगत हो जायगा । यदि किसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) तरह इस बात को मान भी लिया जाय तो भी आप जड़ पूजा से अलग किसी तरह भी नहीं हो सकते, क्योंकि श्राप तो विद्वान् के शरीर को ही पूजा करेंगे, मगर शरीर तो विद्वान् का भी जड़ ही है, इसलिये वह पूजा भी जड़ की ही पूजा हुई। आप आशङ्का करेंगे कि विद्वान के शरीर में चेतन आत्मा के होते हुये चेतन शरीर के पूजने से हम जड़ पूजक नहीं हो सकते, तो आप की ही तरह मूर्ति पूजक भी मूर्ति के पूजने से कभी भी जड़ पूजक नहीं कहा सकता, क्योंकि आप इस बात को मानते हैं कि ईश्वर सर्व व्यापक है, तो क्या सर्व व्याप्य से एक मूर्ति ही अलग रह गई? इसलिये आप को यहां देवता शब्द का अर्थ विद्वान नहीं मान कर शिव, विष्णु प्रादि देवता ही मानना चाहिये। और यदि इतने पर भी आप अपना बेकार हठ को नहीं छोड़ते तो और भी सुनिये: तडागान्युदपानानि वाप्यः प्रश्रवणानिच । सीमासन्धिषु कार्याणि देवतायतानानि च ॥ (मनुस्मृति, प्रत्याय ८ श्लोक २४८) भावार्थ:--तडाग (तालाब ), उदपान (प्याऊ), वापी (वावड़ी), प्रश्रवण जिस जगह से पानी निकल कर बहता हो ऐसी जगह, झरना आदि ) और देवतायतन (देव मन्दिर) इन सबों को सीमा सन्धियों (ग्राम, नगर प्रादि के अन्त ) में करना चाहिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) अब आप देखिये और अच्छी तरह विचारिये कि उपर्युक्त मनुस्मृति के श्लोक में यदि देवता शब्द का अर्थ विद्वान् करगे तो वह मसंगत और व्यर्थ हो जायगा, इसलिये देवता शब्द का अर्थ शिव, विष्णु मादि देवता ही यहां वास्तविक और प्रकरणानुकूल एवं मनुस्मृति के प्रसिद्ध टीकाकारानुसार बिलकुल ठीक है। आर्य-अतिशय विनीत होकर, दादाजी से पूछा-महात्मन् मूर्ति के विषय में स्मृति की जो मेरी आशंका थी वह दूर हो गई, अब पाकर आप यह दिखावे कि क्या दर्शन-शास्त्र में भी मूर्ति पूजा का उल्लेख कहीं पर है ? दादाजी-हां साहिब, दर्शन शास्त्र में भी 'मूर्ति पूजा' सम्बन्धी बातें है, अच्छा, अब उन्हें भी आप ध्यान से सुनिये:महर्षि पतञ्जलि कृत 'योग दर्शन' में योग की सिद्धि के लिये अनेक उपाय कहे गये हैं. जिनमें समाधिपाद के २३ वे सूत्र में लिखा है कि 'ईश्वर के प्रणिधान' से योग की सिद्धि होती अर्थात् कैवल्य पद की प्राप्ति होती है। प्रणिधान का अर्थ है कि ईश्वर विषयक धारणा ध्यान और समाधि इनकी सिद्धि होने से योग की सिद्धि होती है मगर निराकार ईश्वर के अनिर्वचनीय होने से उनकी धारणा, ध्यान और समाधि की सिद्धि अच्छे विद्वानों के लिये भी अत्यन्त कठिन टेढी-खीर है। इसलिये भगवान् पतञ्जलिने लोगों की सुलभता के लिए प्रथम चित्त का प्रसादन ही बतलाया, क्योंकि चित्त अत्यन्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) चञ्चल है । उस विस प्रसाधन के लिये भी प्राणायाम की सिद्धि आदि अनेक उपाय बसलाया, उनमें अधिक सुलमता के लिये एक सूत्र लिखा है कि "वीतरागविषयं वा चित्तम् " . ...... (यो० द० समाधिपाद सूत्र ३७) इसका भावार्थ यह है कि योगी को अपने चित्त को किसी वीतराग के चित्त जैसा कर लेना चाहिये, मगर पैसा चित्त करना उसके गुण कर्म और स्वभाव के अभ्यास से ही संभव है, और उसके गुण, कर्म, स्वभाव के अभ्यास की स्थिरता प्रथम उसकी मूर्ति को देखे या ध्यान में लाये विना नितरां असम्भव है, इसलिये दर्शन शास्त्र में भी मूर्ति-पूजा प्रत्यक्ष है। और इस सूत्र की टीकाकार भी यही लिखते हैं, जैस "वीतरागं सनकादिचित्तं तद्विषयध्यानात् ध्यातृवित्ताप सद्वत् स्थिरस्वभावं भवति, यथा कामुकचिन्तया चित्तमपि कामुकं भवति"। भावार्थ:-राग रहित सनकादि ऋषियों का चित्त था, उन ऋषियों के ध्यान करने से ध्यानी योगी का भी चित्त वैसा ही स्थिर स्वभाव वाला हो जाता है, जैसे कामी की चिन्ता करने से चित्त कामुक हो जाता है । और इसके आगे महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं कि"यथाभिमतध्यानाद्वा" ( योगदर्शन, समाधिपाद, सूत्र ३६) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) इसका भाव यह है कि - " किं बहुना यदेवाभिमतं हृदि हरिहर - मूर्त्यादिकं तदेवादी ध्यायेत् तस्मादपि ध्यानानियतस्थितिकं भवतीत्यर्थः ॥ भावार्थ:- बहुत कहने से क्या ? अपना हृदय में जो ही अभीष्ट हो उन्हीं में से किसी विष्णु वा शिव आदि देव मूर्त्तियों को पहले ध्यान करना चाहिये इस ध्यान से भी चित्त की स्थिरता होती है । इसी तरह अन्य दर्शनों में भी मूर्त्ति पूजा विषय का प्रतिपादन कल्याण मार्ग के लिये अनेक जगह है। इससे हठ - दुराग्रह छोड़कर मध्यस्थ बुद्धि के द्वारा विचार करके अब आपको मोन लेना चाहिये कि 'मूर्त्ति पूजा' वास्तव में कल्याणकारक है और वेद, धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र आदि सभी मान्य ग्रन्थों में मूर्त्ति पूजा को करना अच्छी तरह बतलाया है I आर्य - महात्मन्, अब हमें वेद, धर्मशास्त्र और दर्शन शास्त्रों के प्रमाणों से एवं आपकी अलौकिक युक्तियों से तो 'मूर्त्ति पूजा' के विषय में कुछ भी संशय नहीं रहा. मगर अब कृपया यह बतलावे कि - क्या 'मूर्त्ति पूजा' परम्परा से चली आई है या नवीन है ? यदि प्राचीन है तो इसका किसी प्रामाणिक इतिहास ग्रन्थों में कहीं उल्लेख है ? दादाजी - सुनियेजी, 'मूर्त्ति पूजा' परम्परा से चली आ रही है, इसलिये यह अत्यन्त प्राचीन है इसमें हम आपको सर्वमान्य ऐतिहासिक प्रमाण देते हैं, जिससे आपको यह मालुम होगा कि हमारे और आपके पूर्वज भी मूर्त्ति पूजा को मानते थे, खूब ध्यान देकर सुनिये: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) "ततो निषादराजस्य हिरण्यधनुषः सुतः ।। एकलव्या महाराज! द्रोणमभ्याअगामह ॥ न स तं प्रतिजग्राह नेषादिरिति चिन्तयन् । शिष्यं धनुषि धर्मशस्तेषामेवान्यवेक्षया ।। स तु द्रोणस्य शिरसा पादौ स्पृष्टा परन्तपः । अरण्यमनुसम्प्राप्य कृत्वा द्रोणं महीमयम् ॥ तस्मिन्नाचार्यवृत्तिञ्च परमामास्थितस्तदा । इण्वस्त्र योगमातस्थे परं नियममास्थितः ॥ परया श्रद्धयोपेतो योगेन परमेण च । विमोक्षादानसन्धाने लघुत्वं परमाप सः॥ ..................... इत्यादि ॥ [महाभारत, श्रादि पर्व अध्याय १३४]' भावार्थ-जब द्रोणाचार्य के धनुर्विद्या की प्रशंसा दूर देशों तक फैल गई, तब एक दिन भिषदराज हिरण्यधनुष्य का लड़का एकलव्य धनुर्विद्या को सीखने के लिये प्राचार्य द्रोण के पास माया । आचार्य द्रोण ने शूद्र जानकर उसको धनुर्वेद की शिक्षा नहीं दी। तब वह एकलव्य अपना हृश्य में द्रोणाचार्य को गुरु मानकर और उनके चरणों को अपने मस्तक से छूकर बन में चला गया और वहां जाकर द्रोणाचार्य को एक मिट्टी की मूर्ति को बनाकर उसके सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। श्रद्धा की अधिकता और चित्त की एकाग्रता के कारण एकलव्य थोड़े ही दिनों में धनुर्विद्या में बहुत प्रवीण हो गया। एक समय द्रोणाचार्य के साथ कौरव और पाण्डव मृगया' (शिकार) खेलने के लिये बन में गये, साथ में पाण्डवों का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) "एक प्यारा कुत्ता भी था वह कुत्ता इधर उधर घूमता हुआ वहां जा निकला जहाँ एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था, कुत्ता एकलव्य को देखकर भूकने लगा तब एकलव्य ने सात बाण ऐसे चलाये कि जिनसे उस कुत्ते का मुख बन्द हो गया श्री कुत्ता शीघ्र ही दुःखित होता हुश्रा पाण्डवों के पास चला पाया । फिर शीघ्र ही पाण्डवों ने इस विचित्र रीति से 'कुत्ते को मारने वाले को ढूंढा तो श्रागे कुछ दूर जाने पर देखा कि-एकलव्य अपने सामने एक मिट्टी की मूर्ति को रख कर धनुर्विद्या को सीख रहो है। तब अर्जुन ने उससे पूछा कि-महाशय, श्राप कौन हैं ? तब उसने उत्तर में कहा किमेरा नाम पकलव्य है और हम द्रोणाचार्य के शिष्य हैं। यह सुनने ही अर्जुन द्रोणाचार्य के पास गया और उनसे कहने लगा कि-महाराज, आपने तो मुझ से कहा था कि हमारे "शिष्यों के बीच धनुर्विद्या में सबसे प्रवीण तुम ही होगे, किन्तु एकलव्य को तो आपने मुझ से भी अच्छी शिक्षा दी है। द्रोणाचार्य ने कहा-मैं तो किसी एकलव्य को नहीं जानता हूँ, चलो देखू कौन है ? वहाँ जाने पर पकलव्य ने प्राचार्य द्रोण के पदरज को अपने मस्तक पर रक्खा, और कहा कि आपको मूर्ति की पूजा से ही मुझे धनुर्विद्या में ऐसी योग्यता प्राप्त हुई है, श्राप मेरे गुरु हैं। प्राचार्य द्रोण ने कहा कि फिर तो हमारी गुरु दक्षिणा प्रदा करो । एकलव्य ने कहा कि आप जो कहें सो देने के लिए तैयार हूं। प्राचार्य द्रोण ने अर्जुन को प्रसन्न करने के लिये एकलव्य से दक्षिणा में दाहिने हाथ की अंगूठा मांगी। एकलव्य सहर्ष दे दिया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) अंगूठा न रहने के कारण फिर एकलव्य में वैसी लाघवतार नहीं रही और द्रोणाचार्य की प्रतिक्षा भी पूरी हुई, अर्जुन खुश हो गये। अब देखिये महाशय, द्रोणाचार्य की मूर्ति को पूजने ही से धनुर्विद्या में अर्जुन से भी अच्छा प्रवीण एकलव्य हो गया था। इसलिये जो लोग प्रति दिन श्रद्धा और भक्ति से वीतराग देव ईश्वर की मूर्ति को पूजेंगे उनको परम कल्याण और सफल मनोरथ क्यों नहीं होगा ? क्योंकि उपर्युक दृष्टान्त एक प्रसिद्ध इतिहास महा भारत का है। और भी सुनियेजिस समय मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् रामचन्द्रजी महाराज राषण भादि राक्षसों को मारकर पुष्पक विमान के द्वारा अयोध्याको भा रहे थे, उस समय रास्ते में अपनी स्त्री सीता को उन्हों ने उन उन स्थानों को बतलाया जहां जहां.. वे सीता के वियोग में घूमते रहे-जैसे" एतत्तु दृश्यते तीर्थ सागरस्य महात्मनः । यत्र सागरमुत्तीर्य तां रात्रिमुषिता वयम् ॥ एष सेतुर्मया बद्धः सागरे लवणार्णवे। तव हेतीविशालाक्षि! मलसेतुः सुदुष्करः।. पश्य सागरमक्षोभ्यं देहि ! वरुणालयम् । अपारमिष गर्जन्तं शङ्खशुक्तिसमाकुलम् ॥ हिरण्यनाभं शैलेन्द्र काञ्चनं पश्य मैथिलि! विधाभाथें हनुमतो भित्वा सागरमुत्थितम् ।। पतकुक्षौ समुद्रस्य स्कन्धावार निवेशनम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) अत्र पूर्व महादेवः प्रसादमकरोद्विभुः । एतत्तु दृश्यते तीर्थं सागरस्य महात्मनः ॥ सेतुबन्धमिति ख्यातं त्रैलोक्येन च पूजितम् । पतत्पवित्र परमं महापातकनाशनम् ॥ [ वाल्मीकीय रामायण उत्तर काण्ड अध्याय ] इस भावार्थ:- भगवान् श्री रामचन्द्रजी कहते हैं कि हे सीते !. यह महात्मा समुद्र का तीर्थ दीख रहा है, जहां हमने एक -रात्रि को निवास किया था। यहां जो सेतु दीख रहा है, इस को नल की सहायता से तुम को प्राप्त करने के लिये हमने बान्धा था। जरा समुद्र को तो देखो जो वरुण देव का घर है, में ऐसी ऊंची ऊंची लहरें उठ रही हैं, जिनकी ओर छोर भी नहीं मिलती, अनेक प्रकार के जल-जन्तुनों से भरे तथा शःख और सीपों से युक्त इस समुद्र में से निकले हुये सुवर्णमय इस पर्वत को देख जो हनुमान के विश्राम के लिये समुद्र' के वक्षःस्थल को फाड़ कर उत्पन्न हुआ है । यहीं पर विभु व्यापक श्री महादेवजी ने हमें वरदान दिया था। यह जो महात्मा समुद्र का तीर्थ दीखता है, सो सेतुबन्ध नाम से प्रसिद्ध है और तीनों लोकों से पूजित है। यह परम पवित्र है और महापातकों को नाश करने वाला हैं । यहां अन्तिम दो श्लोकों पर वाल्मीकीय रामायण के संस्कृत कार लिखते हैं कि "सेतोर्निविघ्नता सिद्धये समुद्र प्रसादानन्तरं शिवस्थापनं : रामेण कृतमिति गम्यते, कूर्म पुराणे रामचरिते तु श्रत्र स्थना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) स्पष्टमेव लिङ्गस्थापनमुक्त वत्स्थापित-लिङ्ग-दर्शनेन ब्रह्महत्यादि पापक्षयो भविष्यतीति महादेव-वरदानं च स्पष्टमेवोक्तम् , "सेतु दृष्ट्वा समुद्रस्य ब्रह्महत्या व्यपोहती" ति स्मृतेः ॥ _____ भावार्थ:-सेतु की निर्विघ्नता पूर्वक सिद्धि (तैयार) के लिये रामचन्द्रजी ने समुद्र के खुश होने के बाद महादेव की मूर्ति (प्रतिमा) का स्थापन और पूजन किया था। कुर्मपुराण में तो इस प्रकरण में रामचन्द्रजी का 'लिंग स्थापन' और महा. देवजी के घरदान का साफ साफ वर्णन है कि तुम से स्थापित किये हुये शिव मूर्ति के दर्शन करने से ब्रह्महत्यादि महापापों का नाश होगा और स्मृति में भी लिखा है कि समुद्र का सेतु के दर्शन करने से बड़े बड़े पापों का नाश होता है" ॥ और भी लिखा है कि- "देवागाराणि शून्यानि न भान्तीह यथा पुरा । देवतार्चाः प्रविद्धाश्च यज्ञगोष्ठास्तथैव च ॥" ___(वाल्मीकीय रामायण, आदिकाण्ड ). यह उस समय की बात है, जिस समय महाराज दशरथजी अपने प्रिय पुत्र श्रीरामचन्द्रजी के वियोगमें मर गये और भरत एवं शत्रुघ्न अपनी ननिहाल में थे, इन दोनों को बुलाने के लिए अयोध्या से दूत भेजा गया और भरतजी दूत के मुख से पिता की मृत्यु को सुनते ही अपने भाई शत्रुघ्न के साथ अयोध्या को प्रस्थान कर दिये। जब भरतजी अयोध्या के पास पहुँचे तो उन्होंने अनेक अशुभ चिन्ह देखे, उन अशुभ चिन्हों में से कुछ चिन्ह उपयुक्त श्लोक में पाया है, जिसका मावार्थ नीचे दिया जा रहा है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) ... भावार्थ:-भरतजी अपने मन में विचार करते हैं कि भाज अयोध्या में देवताओं के मन्दिर शून्य दीख रहे हैं और वे देव मन्दिर आज घेसे नहीं शोभ रहे हैं जैसे पहले शोमते थे, देव प्रतिमायें ( मूर्तियां ) पूजा रहित हो रही हैं और उनके ऊपर धूप-दीप.पुष्पादि चढ़े हुये नहीं दीखते, तथा यज्ञों के स्थान भी यक्षकार्य से घिरहित हैं। इसके बाद दादाजी ने फिर कहा कि-कहिये श्रीमान् छज्जूरामजी और काकाजी, क्या अब भी आपको मूर्ति पूजा के विषय में कुछ सन्देह बाकी है ? क्योंकि पूर्वोक्त तीनों प्रमाण प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ महाभारत और पाल्मीकीय रामायण के हैं, जिनसे साफ मालुम होता है कि हमारे और आपके पूर्वज देवमूर्ति पुजक थे, लोग आस्तिक थे ईश्वर के प्रति श्रद्धा और भक्ति पूर्ण थी, चूंकि यह बात प्रेता और द्वापर युग की है. इसलिये मूर्ति पूजा अत्यन्त प्राचीन है, लाखों वर्ष पहले से मूर्ति पूजा पार्यों के यहां होती पा रही है। मार्य और काकाजी, अत्यन्त विनीत होकर-महात्मन् , मापके उपदेशों से अब हम लोगों को मुर्ति-पूजा के विषय में कुछ भी सन्देह नहीं रहा, मगर अब सवाल शिर्फ इतना है कि-'मूर्ति पर' फूल, फल, चन्दन, धूप, दीप, अक्षत और मिष्टान्न आदि पदार्थ क्यों चढ़ाते हैं क्योकि फूलों को मूर्ति पर चढाने से जीव हत्या होती है और उसका पाप फल पुजारी को होता है, एवं ईश्वरमूर्ति जब रागद्वेष रहित है तो फिर उस पर अक्षत और मिष्टान्न श्रादि चढाने की क्या आवश्यकता? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) वादोजी-महाशयजी, आप अपने इन प्रश्नों का उत्तर ध्यान कर सुनिये:मूसिक-पूजक मूर्ति पर फूल, फल, बन्द, धूप, दीप मादि पदार्थ इसलिये चढ़ाते है कि-वस्तु के बिना भाष नहीं होता और माष के बिनाद भक्ति नहीं हो सकती और हद भक्ति के विना ईश्वरीय ज्ञान कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है, इसलिये मुर्तिको फूल फल श्रादि लेकर पूजते हैं, और फूल फल श्रादिके चढाने से जो आप हिंसा को मानते हैं, यह निरर्थक है, देखिये 'योगदर्शन' में हिंसा के विषय में क्या लिखा हुआ है ? जैसेयोग दर्शन के २ पाद २८ वां सूत्र में लिखा है कि योग के अंगों के अनुष्ठान (संविधि-साधन ) से ज्ञानकी अंर्थात् पृथिवी आदि तत्वं विषय की वृद्धि होती है, यह शान. वृद्धि तब तक होती है जब तक योगी को प्रकृति पुरुष को साक्षात्कार याने मोक्ष या ब्रह्मानन्द वा परमसुख किम्बा परमशान्ति नहीं होती। उक्त योग के अंग पाठ हैं, जैसे-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । इनमें प्रथम-यम पांच प्रकार का है, जैसे-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। अहिंसा का सीधा सादा अर्थ है-किसी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचाना, परन्तु इस सूत्र के टीकाकार लिखते है कि ___ "शौचाचमनादौ अपरिहार्य हिसायां तु न दोषः । ...अर्थात् शौच (पाखाना, पेशाब, स्नान आदि) में और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) आचमन (पानी पीना, कुल्ला करना आदि) एवं स्वास प्रस्वास लेना और चलना फिरना एवं कृषि आदि कार्यों में जिनमें कि अपरिहार्य हिंसा हैं उनमें दोष नहीं। निचोड़ यह निकला कि जो नित्य कर्तव्य कर्म है और जिससे अपनी तथा दूसरे की मात्मा को भी कल्याण हो, उसमें यदि कोई अनात (अनजान) हिंसा भी हो जाय तो दोष नहीं, क्योंकि एक तो जानबूझ कर वह हिंसा नहीं हुई और दूसरा उस कर्म में (जिसमें वह अनजान हिंसा हुई है) अधिक पुण्य के होने से कोई भी पाप भागी नहीं हो सकता है। .. पहले कहा जा चुका है कि वस्तु के विना भाव उत्पन्न नहीं हो सकता और भाव के बिना दृढ़ भक्ति नहीं हो सकती और हद भक्ति के बिना ईश्वरीय ज्ञान होना उसी तरह असम्भव है जैसे आधार के बिना प्राधेय का स्थिर होना असम्भव है, इसलिये फूल, फल आदि को मूर्ति पर चढ़ाना परम प्रावश्यक है और फूल, फल, धूप, दीप आदि को मूर्ति पर चढ़ाते समय सुचतुर श्रद्धालु प्रास्तिक मूर्ति पूजक लोग प्रत्येक वस्तु को अर्पण करने के समय में निम्न लिखित भावना करते हैं, जैसे "फूल" फूलों को मूर्ति पर चढ़ाने के समय में भक्तिमान पुजारी यह भावना करते हैं कि हे भगवान् ! ये जो फूल हैं, वे कामदेव के बाण (काम के बढ़ाने वाले ) हैं और मैं अनेक जन्मों से सांसारिक विषयों में डूबा हुश्रा हूं आप वीतराग हैं और कामदेव को पराजित किये हैं इसलिये इन फूलों को आपके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) प्रति समपर्ण करके आप से यह सविनय प्रार्थना करता हूँ कि थे कामदेव के बाण जो अनेक योनियों से मुझे विषय वासना सम्बन्धी दुःख को दे रहे हैं, आपकी भक्ति से अब आगे दुःख नहीं दें... ● इत्यादि । 66 फल मूर्ति के सामने फल रखने के समय में यह प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान्! आपकी भक्ति का मुक्तिरूप फल मुझे प्राप्त हो । 66 "" 'चन्दन, केशर, कस्तूरी आदि "" इन सुगन्धित वस्तुओं को चढ़ाते समय यह भावना करते हैं कि हे ईश्वर ! इनकी सुगन्ध से दुर्गन्ध जिस तरह दूर भागती है उसी तरह आप की भक्ति से हमारी बुरी विषयवासना दूर होजाय । 66 धूप " धूप देने के समय में ऐसी भावना करते हैं कि, हे भगवान् ! जिस तरह धूप अग्नि में जल कर राख हो जाता है उसी तरह आप की दृढ़ भक्ति से मेरे सब पाप जल कर राख हो जाय और जैसे वह धूआं ऊपर को ही जाती है वेसे ही हम भी उ लोक (मोक्ष, कैवल्य ) को जावें । दीप " 66 मूर्त्ति के सामने दीपक दिखाते समय यह भावना करते हैं कि हे ईश्वर ! जिस तरह दीपक के प्रकाश से अन्धकार दूर हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) जाता है उसी तरह श्राप की भक्ति रूप दीपक से मेरे हृदय रूपं मन्दिर में केवल ज्ञान रूप प्रकाश होकर अन्धकार का नाश हो । 66 अक्षत, चावल " अक्षत चढ़ाते समय यह भाषमा करते हैं कि हे भगवान् ! हम इन अक्षतों को आप को सम्र्पण करते हैं और इन अक्षतों की पूजा से हमको आपकी अक्षत भक्ति की प्राप्ति हो और अक्षत सुख-शान्ति की भी प्राप्ति हो । मिष्टान्न 6. "" मिशन (मिठाई ) अर्पण करते समय यह भावना करते हैं कि. हे ईश्वर ! हम अनादि काल से इन वस्तुओं को भक्षण करते आये हैं, मगर अभी तक तृप्ति नहीं हुई, इसलिये इन्हें आप को समर्पण कर श्रापसे प्रार्थना है कि हम भी आपकी भक्ति के प्रताप से इन वस्तुओं से तृप्त हो जावे अर्थात् मुक्त हो जावें । अथवा एक ही वार यह प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर ! वीतराग परमात्मा ! हमें संसार की ये पूर्वोक्त सभी चीजे मोहित कर रही हैं और आपने उन सभी पदार्थों को त्याग दिया है, निर्विकार वीतराग हैं, इसलिये आप की भक्ति से हमारी भी इन पदार्थों से मुक्ति हो और हमें भी आप के जैसी सुख-शांति और वैराग्य उत्पन्न हो । आप इन बातों को कह कर दादाजी ने फिर कहा कि - कहिये कालूरामजी और आर्य छज रामजी महाशय, क्या अब भी आप को 'मृति-पूजा' के विषय में कुछ सन्दद्द है ? दानोंन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) अपि - हाथ जोड़ कर अत्यन्त विनीत भाव से बोला :- नहीं महात्मन् ! हमें अब मूर्त्ति पूजा के विषय में कुछ भी संशय नहीं हैं, -की युक्तियों और प्रमाणों से हमारे सभी भ्रम दूर हो गये, इतने दिन हम अज्ञानता के वश होकर भूले हुये थे, इसीलिये मूर्ति"पूजा में विश्वास नहीं था, श्रद्धा नहीं थी और भक्ति का तो नाम निशान भी नहीं था, अतः मूर्त्ति पूजा की निन्दा ही करते थे, इसलिये हम सर्वज्ञ विभु वीतराग भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो ! आप के चरणों की अटल भक्ति दिनों दिन हम में बढ़े और पहले की सभी भूल चूक से उत्पन्न दुष्कर्म - परिणाम श्राप की भक्ति के पुण्य फल से विनाश होकर मुझे शाश्वत सुख-शान्ति की प्राप्ति हो, और हम यह प्रतिशा करते हैं कि अब सर्वदा प्रतिदिन 'मूर्त्ति पूजा करेंगे और मनुष्यमात्र को 'मूर्तिपूजा करनी चाहिये । इसके बाद दादाजी ने मौलवी अबदुल हुसेन की तरफ नजर करके बोले कि - क्यों मौलवी साहब, आप तो मूर्त्ति को मानते हैं ? " मौलबी- नहीं जी, नहीं, हम मूर्त्ति को नहीं मानते, क्या आप यह नहीं जानते हैं कि हमारा मज्भब मूर्त्ति ' 'पूजक नहीं है ? हम लोग हिन्दूओं की तरह अन्ध विश्वासी नहीं हैं जो मूर्त्ति को पूजा करें, क्या पत्थर भी कभी खुदा हो सकता है ? और कोई भी अकलमन्द जड़ पत्थर आदि में खुदा को रहना मन्जूर कर सकता है ? इसलिये हम से ऐसा सवाल करना आप को बिलकुल बेकार है । दादाजी - एक कागज के टुकड़े पर 'खुदा' लिख कर मौलवी से कहा, क्या मौलवी साहब, आप इस कागज के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) टुकड़े के ऊपर अपने पैर रख सकते हैं ? मौलवी - लाल लाल आंखें करके कहने लगा, क्या आपको धर्मं और जान का भय नहीं जो ऐसी बदतमीजी बातें कर रहे हो, क्या तुम्हें खुदा का कुछ भी भय नहीं ? जो इस पर मुझे पैर रखने को कहते हो। क्या तुम्हे यह मालूम नहीं कि हम लोग अपने धर्म के ऊपर कुर्बान होने के लिये भी हमेशा तैयार रहते हैं । दादाजी - क्योंजी, मौलवी साहब, आप बिना शोचे समझे. इतने रंज क्यों हो गये ? अब भी जरा शोचिये तो सही कि पहले मैंने श्राप से क्या कहा था और अब क्या कह रहा हूँ ? जो आप बहुत जल्द ही इतने गुस्से में आगये, मैं ने तो आप से शिर्फ यही पूछा कि, क्या आप इस कागज के टुकड़े पर अपना पैर रख सकते हैं ? इतने ही में आप हद्द से बाहर हो गये और मुझे बहुत खोटी खरी सुननी पड़ी, इस से तो मुझे साफ साफ मालुम होता हैं कि आाफ अपने मूंह से जड़ चीजों को आदर करने लग गये, यह क्या ? . कब जड़ का श्रादर किया है ? मौलवी - म ने दादाजी - क्या कागज और स्याही जड़ नहीं है ? मौलवी - हां हां जड़ नहीं तो और क्या है ? दादाजी - मौलवी साहब, यदि ऐसी बात है तो श्राप इतने गुस्से में आकर हद्द से बाहर क्यों हो गये ? क्योंकि, इसमें कागज का टुकड़ा और स्याही इनके अलाव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) और कोई तीसरी चीज नहीं है, न तो इस में खुदा है और न इस में उनका पैर है या न हाथ ही है, फिर आप का रंज कैसा ? । मौलवी-हां जी हां, बस इस में खुदा का नाम साफ लिखा हुआ मौजूद है, इस पर हम अपना पांव कैसे रख सकते हैं? दादाजी-जब आप कागज और स्याही से लिखा हुआ खुदा के नाम पर कुर्वान होते हैं तो फिर उनकी मूर्ति पर कुर्वान क्यों नहीं होते ? और श्राप यह कैसे कह सकते हैं कि हम जड़ चीजों को नहीं मानने । खैर आप यह तो बतलायें कि आप लोग माला के मण के गिनते हो या नहीं? मौलवी-हां जी जरूर गिनते हैं। दादाजी-अच्छा, श्राप के माला के मणको की जो खास संख्या निश्चित है, उस में अवश्य कोई कारण होगा, इस से मालुम होता है कि किसी न किसी बात की स्थापना जरूर है। कोई कहते हैं कि-खुदा के नाम एक सौ एक हैं, इसलिये माला के मण के १०१ रखे गये हैं। मतलब यह कि कोई न कोई विशेष कारण से ही संख्या का नियत है, बस इस से स्थापना की सिद्धि होती है और जिसने स्थापना स्वीकार ली उसने मूर्ति मान ही लिया, शिर्फ आकार का भेदभाव है, और जब कि श्राप, कागज, लकड़ी, या पत्थर के टुकड़ों में खुदा के नाम की स्थापना मानते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२) हैं तो फिर उस नाम वाले की स्थापना क्यों नहीं मानते ? मौलवी-जब खुदा का कोई प्राकार ही नहीं तो उसकी मूर्ति कैसे बन सकती है ? दादाजी-आप के कुरान शरीफ में लिखा है कि-मैंने पुरुष को अपने प्राकार पर पैदा किया, इस से साबित होता है कि खुना का आकार है, और कुरान का यह तालिम है कि खुदा फरिस्तों की कतार के साथ षड़ी जगह में पायेंगे और इसके सिंहासन को पाठ फरिस्तों ने उठाये होंगे। अब अगर खुदा मूर्तिवाला नहीं है तो इसकी मूर्ति को पाठ देवों ने क्यों उठाई ? और मूर्तिमान तो श्राकार घाले को ही कहते हैं, और भी श्राप लागों का कहना है कि खुदा एगारह अर्श में सिंहासन पर बैठा हुआ है। खैर, अब श्राप यह बतलाइये कि आपने कभी हज भी किया है ? मौलवी-मैंने दो बार हज किया है, क्योंकि हज से स्वर्ग मिलता है, फिर काषाशरीफ का ज़ क्यों न करना चाहिये ? जरूर करना चाहिये। दादाजी-वहाँ पर कौनसी चीज है, जरा बतलाहये तो सी। मौलवी-हज मक्का शरीफ में होता है, वहां पर एक काला पत्थर है उसको चुम्बन करते हैं और काबा के कोट की प्रदक्षिणा करते हैं। दादाजी--क्या यह मूर्ति-पूजा नहीं है ? मौलवी-कभी नहीं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) दादाजी-पत्थर का चुम्बन करना और प्रदक्षिणा करना फिर यहां जाकर शिर झुकाना मूर्ति पूजा नहीं तो और क्या है ? और आप जो खुदा के मकान को इस तरह कदर (श्रादर ) करते। हैं, तो खुदा की मूर्ति का कदर क्यों नहीं करते और उसकी मूर्ति को क्यों नहीं मानते ? भला शोचिये तो मौलवी साहिब, कि यह जो ताज़िये निकाले जाने हैं सो बुत नहीं तो और क्या है ? और श्राप लोग काबा की (पश्चिम की) ओर मुंह करके नमाज पढ़ते हैं, सो भी तो एक तरह की मूर्ति पूजा ही है। मौलवी- काबा तो खुदा का घर है, इसलिये हम उधर ही मुंह करके नमाज पढते हैं। दादाजी-क्या और जगह खुदा से खाली है ? जब खाली है तब आपका यह कहना कि खुदा सभी जगह है बेकार होगा। मौलवी-काषा की तरफ हम मुह को इसलिये करते हैं कि काबा खुदा का घर है. उस तरफ मुह करने से दिन खुश होता है और स्थिर रहता है। दादाजी-कावा तो आंख के बाहर की एक चीज है, जो दूर से दिखाई नहीं देती, खुदा की मूर्ति तो सामने होने से अच्छी तरह दिखलाई देने से ध्यान भी अधिक लगेगा और मन स्थिर होगा। आप लोग जो नमाज पढते हैं-सो यदि किसी ऐसी जगह पढा जाय जिस जगह आदमी के आगे से जाने का मुमकीन हो, तो श्राप लोग उसके वीच में लोटा या कपड़ा कोई चीज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) रख देते हैं ताकि नमाज में कोई विघ्न न हो जाय । यह जो लोटा या कपड़ा आदि स्थापना की चीज रखी जाती है सो भी खुदा के लिए एक तरह की कैद है यानी सम्भावनो की हुई चीज है । अच्छा मौलवी साहिब - आप एक पूरा प्रमाण और लीजिये मूत्र लिफ किताब दिलवस्तान मुज़ाहिब अपनी किताब में लिखते हैं कि - मुहम्मद साहिब जोहरा ( शुक्कर ) की पूजा करते थे, मालुम होता है कि मुसलमान लोग इसीलिये शुक्रवार को पवित्र जान कर प्रार्थना का दिन समझते हैं, और मुहम्मद साहिब का पिता मूर्त्ति की पूजा किया करता था । मौलवी साहब ज्यादा क्या कहें- श्रापके कोई मज्भब तो ताजिये को पूजते हैं, और कोई कुरान को और कोई कब्र को पूजते हैं इसलिये आप यदि इनसाफ करके विचारों और देखें तो आप लोग भी मूर्ति-पूजा से अलग नहीं हैं । अन्त में मौलवी साहब ने लज्जित होकर दादाजी को प्रणाम किया और कहा कि हां सावि, बात तो ऐसी ही है, अब मैं मूर्त्ति पूजा को मानता हूं और मेरी भूलचूक माफ करेंगे, मैं इतने दिनों तक भूल में पड़कर भटकता फिरता था, दर असल में हरएक शक्त को चाहिये कि वह अपने आगे की भलाई के लिये और गुजरते जीवन में सुख-शान्ति के लिये खुदा ( मगवान ) की ( तस्वीर ) (मूर्ति) की पूजा करे । इसके बाद दादाजी ने सरदार शेरसिंह सिक्ख की ओर देखकर बोला--क्यों सरदार साहब, आप तो 'मूर्ति-पूजा' को मानते हैं न ? सरदार -- नहीं जी, हम जड़ मूर्त्ति की पूजा को किसी तरह भी नहीं मानते । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) दादाजी - अच्छा, आप यह तो बतलावें कि गुरु नानकजी और गुरु गोविंदसिंहजी की मूर्ति को देखकर खुश होते हैं या नहीं ? सरदार - भला, गुरुओं की मूर्ति को देखकर कौन खुश नहीं हो सकता, क्योंकि गुरुओोंने धर्म की रक्षा के लिये अपने प्राणों की परवाह नहीं की। गुरु नानक साहिबजी और गुरु गोविन्दसिंहजी जिनको भविष्य पुराण में अवतारों में माना है, इनके चित्रों को देखकर कौन रुष्ट हो सकता ? हम लोग इनके चित्रों को देखकर बहुत खुश होते हैं और बहुत रुपये खर्चा करके इनके चित्रों को बनवा कर अपने मकानों में रखते हैं, एवं अपने मकान के दीवारों पर बनवाते हैं । दादाजी - अच्छा, सरदार साहब, आप लोग अपने गुरुक्षों की मूर्तियों के सामने शिर झुकाते हैं या नहीं ? और उनका सम्मान करते हैं या नहीं ? सरदार- हांजी, हम लोग गुरुओं की मूर्तियों के सामने शिर झुकाते हैं और उनका सम्मान भी करते हैं । दादाजी - क्योंजी सरदार साहिब, मूर्ति के सामने शिर झुकाना और उसका संमान करना मूर्ति-पूजा नहीं है ? बात तो दरअसल में सबकी एकसी है, मगर समझ में फेरफार है । कोई किसी रूप में मानता तो कोई किसी तरह मानता, परन्तु मूर्त्ति पूजा से अलग कोई भी व्यक्ति नहीं है । अच्छा, सरदारजी, एक बात आपको और भी बतलाते हैं, वह यह कि - आप लोग गुरु ग्रन्थ साहिब को अच्छे अच्छे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) कपड़ों में लपेट कर चार पाई या चौकी पर रखते हैं और उसकी समाप्ति होने पर भोग पाते हैं और उसके सामने धूप “आदि जलाकर घड़ी-घण्टे बजाते हैं और भी कई तरह के राग, शब्द आदि उसके सामने बोलते हैं एवं और भी अनेक तरह से उसकी पूजा करते हैं, तब फिर आप मूर्ति पूजा से अलग कैसे रहे ? अगर यदि मूर्ति जड़ है तो ग्रन्थ साहिब भी कोई चेतन नहीं हैं, वे भी तो शिफ कागज और स्याही के संयोग से ही बने हुये हैं जिसके नीचे रखने वाली चारपाई को श्राप लोग "मंजा साहिब के नाम से कहते हैं, इसलिये अब श्राप ही खुद शोच समझ कर कहिये कि आप लोग जड़ की पूजा को किस तरह करते हैं या उसका कदर किस प्रकार करते हैं। सरदार--महात्मन् ! वह गुरुओं की वाणी है, इसलिये हम लाग उसका सम्मान और पूजा करना आवश्यक समझते हैं। दादाजी-अजी साहय, आप लोग जैसे गुरुओं की वाणी का या गुरु साहब का सम्मान और पूजा करते हैं, उसी तरह मूर्ति पूजक भी परमेश्वर की मूर्ति का सम्मान और पूजा करते हैं, और आप लोग जब गुरुओं और गुरुओं की वाणी की प्रशंसा करते हैं तब फिर आप लोगों को परमात्मा की मूर्ति का सम्मान और पूजा अवश्यमेव करनी चाहिये, क्योंकि गुरुओं की वाणी से परमात्मा की मूर्ति कहीं अधिक पवित्र है, इसलिये आपको चाहिये कि परमात्मा की मूर्ति की पूजा और संमान प्रतिदिन यथा समय किया करें, और सबसे अधिक आश्चर्य की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ( ७७ ) बात तो यह है कि पूर्वोक्त वृत्तान्त से जड़ पदार्थों की पुजा को करते हुये भी आप ईश्वर की मूर्ति-पूजा पर आक्षेप करते हैं सो बिलकुल बेठीक है, आपको अच्छी तरह विचार करना चाहिये । अन्त में सरदार शेरसिंह ने मूर्ति पूजा' को मान लिया और कहा कि महात्मन् दादाजी 'मृति-पूजा' वास्तव में ठीक है इसलिये प्रत्येक आदमी को चाहिये कि ईश्वर की मूर्ति की श्रद्धा भक्ति से प्रतिदिन पूजा कियो करें, इसी में ही सब का परम कल्याण है, क्योंकि ईश्वर से बढ़ कर पूजने लायक दुनिया में और कुछ नहीं है। इसके अनन्तर दादाजी ने हजरत ईसामसीह पादरी की तरफ देख कर शोले-क्यों पादरी साहब, आप तो मूर्ति-पूजा को मानते हैं ? पादरी-नहीं जी, मैं जड़ मूर्ति की पूजा को नहीं मानता। दादाजी-पादरी साहब यह तो शिर्फ कहने के लिये ही प्राप लोगों की बात है कि-हम 'मूर्ति पूजा' को नहीं मानते, मगर दर असल में श्राप लोगों का एक "रोमन कैथलिक" मत अच्छी तरह मूर्ति-पूजा को मानता है, क्योंकि वे लोग हज़रत मसीह और मरि. यम के चित्रों को गिर्जाघर में रखकर उस पर फूल, फल प्रादि चढ़ाते हैं और उनकी पूजा करते हैं और रूम के तो सभी लोग मूर्ति-पूजक हैं। इसके अलावा मुअल्लिफ किताब दिल्लयस्तान-मजाहिष अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि हजग्न ईसा मसीह सूर्य को पूजा करते थे और रविवार को सूर्य की पूजा करते थे इसलिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (05) ईसाई लोग रविवार के दिन को पूजा और सम्मान का दिन मानते हैं, इसलिये पादरी साहब, आप यदि पक्षपात को छोड़ कर विचार करके देखें तो आप लोग भी मूर्ति पूजा से अलग नहीं हैं क्योंकि आपके यहाँ यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है कि One picture is brings ten Thousands words) "धन पिक्चर इज विंगस टेन थाउजेन्टस वर्डस " अर्थात् एक मूर्ति दस हजार शब्दों के समान ज्ञान कराती है । श्रथवो यो कहें कि दुनिया में कोई भी ऐसा मत नहीं जो किसी न किसी तरह मूर्ति पूजा को नहीं मानता हो, इसलिये मिष्टर पादरी साइब, सुनिये और ध्यान देकर विचारिये कि - " मूर्ति - पूजा " दुनिया में अनादि काल से चली आ रही है, कोई अपने गुरुश्र की चित्रों (तस्वीरों को, कोई अपने वशंजों ( खानदानों या बुजुर्गों ) की जमीन को तो कोई अपने धर्म पुस्तकों को शिर | झुकाते हैं, सम्मान करते हैं, क्या यह 'मूर्ति-पूजा' नहीं है ? i अन्त में पादरी साहब ने भी मूर्ति पूजा स्वीकार ली और महात्मा दादाजी को सप्रेम प्रणाम किया । अनन्तर दादा दादूरामजी ने श्री ज्ञानचन्दजी तेरह-परन्थी ! जैनी से कहा- क्यों ज्ञानचन्दजी आप तो मूर्ति-पूजा को मानते हैं। तेरहपन्थी - ज्ञानचन्दजी- नहीं महाराज, हम प्रतिमा पूजा को किसी तरह भी ठीक नहीं मानते । [-दादाजी - कहोजी, मूर्तिपूजा को नहीं मानने का कारण क्या ? पंथी - महाराज, प्रतिमा अजीब है, अजीब की बंदना या पूजा | करने से इच्छा पूरी नहीं हो सकती । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६) दादाजी-सुनोजी, अक्षर अजीब है, अक्षरों का समुदाय पद होता है और पदों का समुदाय ही वाक्य या महा. धाक्य हैं, धार्मिक पुस्तकें वाक्य के समूह है, यानी सभी धार्मिक व्यवहारिक, वैज्ञानिक प्रादि पुस्तकें अजीव ही हैं और दुनियां के सभी विचारवान् पुरुष उन अजीव पुस्तकों से अपना अभीष्ट को सिद्ध कर लेते हैं, तो फिर 'अजीव प्रतिमा की सेवा से इच्छा पूरी नहीं होती यह आपका कहना बिलकुल असत्य और उपहासास्पद है। और 'निशीथसूत्र' में लिखा है कि-जिन प्रतिमा के सामने पीठ देकर साधू नहीं बैठे, तथा 'व्यवहारसूत्र' में लिखा है कि-'साधु जिन प्रतिमाके संमुख पालोयणा लेवे इसलिये प्रतिमा में अजीव का कहना भी मिथ्या और भी देखिये किजैन सिद्धान्त में पाठों कर्म अजीव हैं, यदि अजीब जीव को कुछ नहीं करता तो कर्म जीव को संसार में भ्रमण नहीं कराता, किन्तु देख रहे हैं कि अजीव रूपी कर्मों से मारा हुआ जीव संसार के चारों गतियों में सुख दुःस्त्र भोगता हुआ भ्रमण कर रहा है। पंथी-महाराज, भगवान् मुक्ति में है, फिर मन्दिरों में भगवान् ___ को क्यों मानते हैं ? दादाजी-सुनियेजी, "श्री ज्ञाताजी सूत्र" में द्रौपदी के अधि. कार में मन्दिर को जिनघर कहा है, जैसे"दोवह रायवरकन्ना मज्जनघरे निगच्छह निगच्छादत्ता जिणघर पवसई पवसइत्ता...............इत्यादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) यहां जिणघर नाम जिन (भगवान् ) का घर है, अत: उपर्युक्त सूत्र से सिद्ध हो गया कि जिन मन्दिर में भगवान है। पन्थी-महाराज, प्रतिमा अबोल है, जीव का भेद, इन्द्रियां, जाति, शरीर, भात्मा, प्राण, गुणटाला इत्यादि १४ मेव उसमें कुछ नहीं है, १५ बोल प्रतिमा में नहीं है इस-- लिये प्रतिमा श्रमान्य है। दादाजी-सुनियेजी, आपके धार्मिक-सूत्र-सिद्धान्तों की पुस्तकों में भी तो बोल नहीं हैं, तो क्या आपकी वे पुस्तके अमान्य हैं ? अङ्गीकार करना पड़ेगा कि धार्मिक पुस्तक मान्य है, उसी तरह वोल देव प्रतिमा भी मान्य ही है। और भी सुनिये कि सिद्ध भगवान् भी अबोल ही हैं, उनमें जीव के १४ भेद नहीं हैं, और इन्द्रिय गुणठाणा आदि १५ बोल भी नहीं हैं, तो क्या श्राप जैसे भी उन्हें बन्दना करता और मान करता है या नहीं ? कहना पड़ेगा कि मान करता और नमस्कार करता है, अतः अबोल भी देव प्रतिमा मान्य है और उसकी पूजा वन्दना धार्मिक क्रिया है, श्रेयस्कर है। पंथी-महाराज, मन्दिरों में जाकर पत्थर की मूर्ति को जो देखते हैं वे अपने घर के या पास के मकानों में लगे हुये पत्थर के खम्भे को ही क्यों नहीं दर्शन कर लेते ? दूर क्यों जाते ? दोनों तो पत्थर ही है। दादाजी-भाई, कुछ विचार भी तो करो, देखो और सुनो, भगवान की मूर्ति मन्दिरों में प्रतिष्ठित होने के बाद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंदना-पूजा करने योग्य होती है घर के पत्थर के खम्भे जने योग्य नहीं है, और जैसे कागज कागज ही है, मगर जिस कागज में सरकारी छाप लगती है घह नोट, स्टाम्प, टीकट आदि के रूप में बहुमूल्य और लोकमान्य हो जाता है इसी तरह प्रतिष्टापित प्रतिमा भी मान्य है, और भी सुनो कि-राय प्रश्रेणी सूत्र' में सूर्याभ देव ने तथा 'जीवाभिगम सूत्र' में विजय देवता ने भगवान् की प्रतिमा को धूप दिया है जैसे-"धूवं देवाणं जिनवराणं" इसका अर्थ यह है कि जिनेश्वर देव को धूप दिया है," यदि गणधरों की इच्छा पत्थर को धूप देने के लिए होती तो वे "धूपं देवाणं पत्थराणं" ऐसा ही पाठ लिखते, अतः मन्दिरों में जाकर जिनेश्वर भगवान् का दर्शन करना चाहिये और पत्थर के खम्भे तथा जिनेश्वर की मूर्ति एक नहीं है। पन्थी-महाराज-प्रतिष्ठा कराई हुई प्रतिमा जब गुण को स्वीकार नहीं करती तब फिर प्रतिमा क्या? दादाजी क्योंजी, श्राप प्रतिदिन प्रातः काल और सायंकाल के प्रतिक्रमण (आवश्यक क्रिया) में ८४ लाख जीवों को क्षमा करते हैं वे ८४ लाख जीव आपकी क्षमा को स्वीकार करते हैं ? या नहीं करते हैं ? उसी तरह प्रतिमा में भी समझिये। पन्थी-महाराज-प्रतिमा के दर्शन से तो चक्की का दर्शन अच्छा क्यों कि चंकी पाटा को पीस कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) तो देती है। दादाजी - बाहरे लाल चुझक्कड़, पेटू को पेटही दीखता; सुनो, जैसे- पेटू को चक्की को देखने से आटे की याद श्राती है उसी तरह भावुक भक्तजन को भगवान की प्रतिमा को देखने से भगवान् के निर्मल गुण कर्म स्वभाव का स्मरण होता है, उस स्मरण से दुषित कर्म नष्ट होता है निर्जरा होती है फिर परम शान्ति की प्राप्ति होती है । पंथी - महाराज, पत्थर का सिंह किसी को खाता नहीं और पत्थर की गौ दूध देती नहीं तो फिर पत्थर की मूर्ति किस तरह तारेगी ? दादाजी - सुनोजी, पत्थर के सिंह को देख कर देखने वालों को वास्तविक सिंह की याद आती है, उसके नर, पशु श्रादि को भक्षण करना आदि हिंसक स्वभाव का स्मरण होता है और पत्थर की गौ को देखने से वास्तविक गौ के दूध देना आदि गुणों का स्मरण होता है, इसी तरह भगवान् की मूर्ति को देख कर उनकी याद आती और उनके वास्तविक गुण स्वरूप का स्मरण होता है जिस से दूषित कर्मों का क्षय होता है । G पंथी - महाराज, प्रतिमा पाषाण की होती है, पाषाण एकेन्द्रिय है, अतः उसे पूजने से क्या लाभ ? दादाजी - नहीं जी, प्रतिमा एकेन्द्रिय नहीं है, वह तो घनेन्द्रिय है, क्योंकि जिनेश्वर भगवान् श्रनेन्द्रिय है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) उन्हीं की प्रतिमा है, और पाषाण कर सम्बन्ध जर्व तक खान से रहता है तभी तक पाषाण एकेन्द्रिय कहलाता, खान से निकलने के बाद अनेन्द्रिय हो जाता, जैसे खान से खोदी हुई तुरत की मिट्टी स. चित्त होती है और बाद में सूखने से अचित्त हो जाती है। पंथी-महाराज, प्रतिमा को पूजने से काय के जीवों की हिंसा होती है और हिंसा में धर्म कहाँ ? दादाजी-सुनिये साहब, “ राय प्रश्रेणी सूत्र" में तथा 'महा. कल्प सूत्र ' में जिन प्रतिमा को जल, चन्दन पुष्पादि से पूजने के लिये स्वयं भगवान महावीर ने श्राक्षा फरमाई है, आशा रूप धर्म को करने से हिंसा नहीं लगती, और 'प्रश्न व्याकरण सूत्र' में दया के ६० नामों में यक्ष और पूजा का भी नाम आया है, अतः प्रतिमा पूजा में धर्म ही है। पंथी-महात्मन् ! प्रतिमा में पंच महाव्रत नहीं है, यदि है तो 'उसे स्त्री किस तरह पूजा कर सकती और स्पर्श कर सकती है ? यदि स्पर्श कर सकती है तो फिर प्रतिमा में पंच महाव्रत कहां रहा ? दादाजी-सुनोजी 'गय पसेणी' सूत्र में सूर्याभदेष के अधि कार में "जिण पडिमा जिणुस्सेह" ऐसा पाठ है, भाषार्थ यह हुआ कि:-जिन प्रतिमा जिनेश्वर भगवान की तरह है, अतः जिन प्रतिमा में पंच महाब्रत है। और जिन प्रतिमा तो स्थापनारूप जिनेश्वर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (a=) स्थापना रूप जिनेश्वर को स्त्री स्पर्श कर सकती है इस में कुछ भी दोष नहीं, 'ज्ञाताजी सूत्र' में लिखा है कि सती द्रौपदी ने जिन मन्दिर में जाकर जिन प्रतिमा पूजी है और जिनेश्वर से मोक्ष मांगी है । पन्थी - महात्मन् ! प्रतिमा हिलती नहीं, चलती नहीं, उठती नहीं, बैठती नहीं और भागती नहीं तो कपाट क्यों बन्द करते और ताले क्यों लगाते ? यदि प्रतिमा भगवान् है तो भगवान् को कैद क्यों करते हैं ? दादाजी - सुनिये महाशयजी, प्रतिमा को कैद नहीं करते, बल्कि चोर और निन्दकों से बचाने के लिये उसे कपाट और ताला लगाते हैं और जैसे श्रापके "भगवान् की वाणी" हिलती नहीं, चलती नहीं, उठती नहीं, बैठती नहीं और भागती नहीं है मगर फिर भी आप उसे कसकर कपड़े और मोटे डोरों से बान्धते हैं उसी तरह प्रतिमा में भी समझे । पन्थी - महाराज, प्रतिमा के आगे नगारे आदि बजाना और नृत्य करना क्या अच्छा है ? दादाजी - हांजी, बेशक अच्छा है, तीर्थंकारों के आगे समयसरण में देवों ने अपनी भक्ति के दिखाने के लिये कुंदुभी बजाई, उसकी आवाज सुनकर माता मरुदेवी नित्य भावना को भावकर केवलत्व को पाया है, भक्ति में पधारी हैं और गृहस्थ के चिन्ह को ही धारण करती हुई मुक्ति को गई है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) . पन्थी-महात्मन् ! प्रतिमा पूजने में यदि धर्म होता तो भगवान् ने साधुपना लेकर कउिन क्रिया क्यों की? प्रतिमा को ही पूज लेते। दादाजी-महाशय, भगवान् ने दीक्षा लेते समय भी प्रतिमा पूजी है, 'शाताजी सूत्र' को देखिये और कठिन किया करना तो तीर्थंकरों का कर्तव्य है। पन्थी-महाराज, सिद्ध भगवान् निराकार है और प्रतिमा ____ साकार है, फिर यह बेमेल जोड़ा कैसा? दादाजी-सुनियेजी, और खूब ध्यान देकर सुनिये, प्रतिमा सिद्ध भगवान् की नहीं है, भगवान तो दुसरे पद में है, अरिहन्त देव की प्रतिमा प्रथम पद में है, अरिहंत देव आकार तथा प्रति हार्य सहित हैं। पंथी-कुछ विनीत होकर, महाराज हमारे माने हुये ३२ जैना गम सूत्रों में मूर्तिपूजा का साफ साफ पाठ है ? । दादाजी-हांजी, बहुत है, सुनिये-स्थानांग सूत्र के ४ स्थानाध्यन, २ उद्देस, ३०७ सूत्र में और 'समवायांग' में ३५ सूत्र में और 'भगवती सूत्र' में ३ शतक, २ उद्देश, १४४ सूत्र में और "उपासकदशांग सूत्र" में ७ अध्ययन, २ सूत्र में और "महाकल्प सूत्र" में तथा "महानिशीथ सूत्र" ३ अध्याय में और "उववाई सूत्र में १-४० सूत्र में, तथा 'रायपसेणी सूत्र' के १३६ सूत्र में और "उत्तराध्ययन निशीथ सूत्र" में अध्याय १० गाथा १७१ इत्यादि में जिन प्रतिमा की पूजा के विषय में अनेको सुदृढ़ प्रमाण उपस्थित हैं, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ पुस्तकों में आप अच्छी तरह देखले और मनन करें। पन्थी-महाराज, अभी किती सूत्र का पाठ देकर समझाइये, पीछे लो हम देखेंगे ही। दादाजी-सुनियेजी, 'महाकल्प सूत्र' में लिखा है कि___ “से भयवं तहारूवं समणं वा माहणं वा चेइयघरे गच्छेजा ? हे गोयमा दिणे दिणे गच्छे ज्जा"। भावार्थ-हे भगवन् महावीर ! तथारूप श्रवण चा माहण चैत्य घर ( जिन मन्दिर ) को जावें ? हे गोतन! प्रतिदिन जिन मन्दिर को जावे, नहीं जावे तो छ बेला का दण्ड भागी होवे । पंथी-महाराज, चैत्य का अर्थ तो साधू , या मति या अति . मान होता है, चैत्य का अर्थ जिन मन्दिर कहां है ? दादाजी-सुनोजी, 'चिती-संज्ञाने' धातु से 'चैत्य' शब्द सिद्ध होता है, 'नाममाला' में लिखा है कि "चैत्यं विहारे जिनसननि" अर्थात् नेत्य का नाम विहार या जिनालय है, इसी तरह 'अमरकोष' में लिखा है कि "चैत्यं प्रायतनं प्रोक्त” अर्थात् चैत्य शब्द का अर्थ सिद्धायतन अथवा जिनमन्दिर है, तथा हेमचन्द्राचार्य ने "अनेकार्थ संग्रह" में लिखा है कि-"चैत्यं जिनौक तद्विम्बं चैत्यमुद्देशपादपः” अर्थात् चैत्य का अर्थ जिममन्दिर है, जिनविम्व है और वह वृक्ष जिसके नीचे तीर्थकर भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त हुश्रा थाइस तरह चैत्य का अर्थ जिनमन्दिर ही है इसके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( =७ ) अनेकों प्रमाण हैं और भी सुनों-मगवती सूत्र के १० शतक ४ उद्देश में लिखा है कि "नन्नथ्प अरिहन्ते वा अरिहन्त चेइयाणि वा भावी पो अणगारस्ल वा विस्लाए उटुंठे उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्प इति । भावार्थ:- जब चमरेन्द्र सौधर्म देवलोक में गया तब एक अरिहन्त का दूसरा चैत्य जिन प्रतिमा का तीसरा साधु का शरण लेकर गया । अब आप विचारिये कि यदि चैत्य का अर्थ साधु या मुनि होता तो यहां अलग नाम श्रणगार क्यों कहते ? अतः चैत्य का अर्थ जिनमन्दिर हो है । और भी सुनो, महाकला सूत्र में लिखा है कि www 6. 'से भयवं समणोवासगस्स पोसहशालाए पोसहिए पोस हवं मयारी किं जिणहरं गच्छज्जा, हंता गोयमा गच्छेजा सि, भगवं केणवेणं गच्छेज्जा, जे कोइ पोसइसालाए योसहवं भयारी जो जिसहरे न गच्छेज्जा तो पायच्छित्तं हवेज्जा, गोयमा जहां साहु तहां भणिष्पवं झटुं श्रह वा दुवाल सं पायच्छित्त हवेज्जा । पूछा कि हे भगवन् ! पोषध - व्रत ब्रह्म भावार्थ - भगवान् महावीर से गौतम ने श्रावक पोषधशाला में पोषध में रहा हुआ चारी जिनमन्दिर को जावे क्या ? भगवन ने कहा, हां, जावे, गोतम ने पूछा, भगवन् ! किस वास्ते जावे, भगवन् ने कहा, गोतम ! ज्ञान, दर्शन और चारित्र के लिये जावे । गोतम ने पूछा, हे भगवन् ! पोषधशाला में रहा हुआ पोषघत्रत ब्रह्मचारी जो कोई श्रावक जिनमन्दिर में नहीं जावे तो क्या उसे प्रायश्चित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) होवे ? भगवान ने कहा हे गोतम जैसे साधुनों को प्रायश्चित्त आवे उसी तरह श्रावक को भी प्रायश्चित्त होवे। इससे भी यह साफ साफ साबित होता है कि साधु या श्रवण प्रत्येक को यथायोग्य जिन प्रतिमा की पूजा, दर्शन और वन्दनो करनी चाहिये। एवं महानिशीथ सूत्र में लिखा है कि "काउपि जिणाय पणेहिं मंडियं सव्वमेयणीबटुं दाणाई चतुष्केणं सढो गच्छेज्जा अचुतं जव”। ____ भावार्थः-यदि कोई श्रावक जिनमन्दिर करावे तो वह अच्युत नाम १२ में देवलोक में जावे, अपि शब्द से दान, शील, तप और भावना से भी १२वें अच्युत देवलोक में जावे"। इससे भी जिनमन्दिर करना और जिनप्रतिमा की पूजा सिद्ध होती है। इसी तरह भगवती सूत्र के २० शतक : उद्देश में जंघाचारण मुनि ने प्रतिमायें पूजी हैं, यह खास भगवान् महावीर ने गोतम से कहा है। ___ और 'रायपमेणी सूत्र' में सूर्याभदेव के जिन प्रतिमा को पूजने का पाठ है जैसे ...... . . . . . . . देवाणुपियाणं सुरियाभे विमाणे सिद्धायणं अवसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेह पमाणतेमाणं सणिखित्तं चिट्ठति, सभाएणं सुहम्मापणं माणवत्ते, चेइए खंभे परामए गालवटुसमुगाए घहउजिगराई कहाउसणि गखिता उचिट्ठति ताउणं देवाणुपियाणं प्रणरो हि च बहुणं वेमाणियाणं देवाणय देवीणए प्रचापिज्झा ए जाप वंदाणिज्झा प्राणमसणिज्झायो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (मह) पूर्वणीउमामो मामाणिज्झामो कस्योग मंगल देवयं चझ्यं पन्मुशासखिभानो तएणणं देवाणुपियासं पुन्छ करगिज्झतं पसारा देवासुप्पियाणे पुषिसेयं तपणखे देवासुप्पिया पुदि पच्चाविहिवार सुहार खमार खिस्सलाए मणुगामि पत्ताए भवस्सन्ति। भावार्थ:-यहां "जिण पडिमाणं जिणुस्सेह" अर्थात् जिनप्रतिमा शिनेश्वर के समान है, सामामिक देवों ने सूर्याभदेव को जिन प्रतिमा को पूजने के लिए कहां और कहा कि जिम प्रतिमा की पूजा कल्याण, मंगल करने वाली है। पूर्व के देव, मुनि सत्पुरुषों में किया और पीछे के भी हानी, च्यांनी मुनि खन्त साधु लोग जिन प्रतिमा की पूजा को करेंगे । यही बात भगवान् महावीर ने भी भामियोगिको से कही है, जब भगवान महावीर का प्रामियोगिको ने वन्दना को तब उन्हें मंगवान ने कहा. जैसे-'सवपसिसी' सूत्र में कही है ........... "सूरियाभोवस्त आमियोंगिया देवा देवाणु. दिपमा हामो नमं सामो सक्कारेमो समाणेनो कल्याणं मंगलं देवयं चेदयं पज्जुवासामो देवाई समणे भगवं महावीरे ते देवे एवं वपासी पोराणमेवं देवा जायमेवं देवा किश्चमेवं देवा करणिज्जमेवं देवा प्राचिरणमेव देवा प्रकणुण्णायमेवं । भावार्थ:-जिप समय प्रामियोगिकों में भगवान महावीर को 'देवयं चेयं' कहकर वन्दना की, नव भगवान ने उनसे कहा कि हे देवों! यह तुम्हारी पूना प्राचीन है, यह भावार है, यह कृत्य है, यह करणीय है, यह पूर्व दोनों ने आवरण किया है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8.) इस तरह सभी तीर्थंकरों ने आक्षा दी है और मेरीभी प्राशा है। भव कहिये ज्ञानचन्दजी, मामियोगिकों ने "देव चेययंग याने जिन प्रतिमा की उपमा देकर भगवान की बन्दना की और भगवान महावीर ने उसे अच्छा कहा, अंगीकार किया और माना दी कि ऐसी पूजा करो, तब क्या प्रतिमा पूजा सिब हुई या नहीं। श्रीयुत ज्ञानचन्दजी ने विनीत होकर कहा-महात्मन् ! हम अभीतक प्रतिमा पूजा के वास्तविक तात्पर्य से दूर थे, मापकी रुपा से मेरी व्यर्थ की शंका निवृत्त हुई, हम अवश्यमेव. मूर्ति पूजक बनेंगे और सबको बनना चाहिये इसीमें सबका सर्वथा श्रेय है सौभाग्य है और है शान्ति इस तरह वहां: उपस्थित सभी ने निष्पक्ष होकर मूर्ति-पूजा को सादर अंगीकार किया और वहां के सब सहर्ष अपने अपने घर को चले गये कालूरामजी भी तब से पक्के मूर्ति पूजक बन गये और ईश्वर. की सप्रेम-भक्ति में सुख पूर्षक दिन बिताने लगे। ॐ शान्तिः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com