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(६३) स्पष्टमेव लिङ्गस्थापनमुक्त वत्स्थापित-लिङ्ग-दर्शनेन ब्रह्महत्यादि पापक्षयो भविष्यतीति महादेव-वरदानं च स्पष्टमेवोक्तम् , "सेतु दृष्ट्वा समुद्रस्य ब्रह्महत्या व्यपोहती" ति स्मृतेः ॥ _____ भावार्थ:-सेतु की निर्विघ्नता पूर्वक सिद्धि (तैयार) के लिये रामचन्द्रजी ने समुद्र के खुश होने के बाद महादेव की मूर्ति (प्रतिमा) का स्थापन और पूजन किया था। कुर्मपुराण में तो इस प्रकरण में रामचन्द्रजी का 'लिंग स्थापन' और महा. देवजी के घरदान का साफ साफ वर्णन है कि तुम से स्थापित किये हुये शिव मूर्ति के दर्शन करने से ब्रह्महत्यादि महापापों का नाश होगा और स्मृति में भी लिखा है कि समुद्र का सेतु के दर्शन करने से बड़े बड़े पापों का नाश होता है" ॥
और भी लिखा है कि- "देवागाराणि शून्यानि न भान्तीह यथा पुरा । देवतार्चाः प्रविद्धाश्च यज्ञगोष्ठास्तथैव च ॥"
___(वाल्मीकीय रामायण, आदिकाण्ड ). यह उस समय की बात है, जिस समय महाराज दशरथजी अपने प्रिय पुत्र श्रीरामचन्द्रजी के वियोगमें मर गये और भरत एवं शत्रुघ्न अपनी ननिहाल में थे, इन दोनों को बुलाने के लिए अयोध्या से दूत भेजा गया और भरतजी दूत के मुख से पिता की मृत्यु को सुनते ही अपने भाई शत्रुघ्न के साथ अयोध्या को प्रस्थान कर दिये। जब भरतजी अयोध्या के पास पहुँचे तो उन्होंने अनेक अशुभ चिन्ह देखे, उन अशुभ चिन्हों में से कुछ चिन्ह उपयुक्त श्लोक में पाया है, जिसका मावार्थ नीचे दिया जा रहा है:
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