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(६४) ... भावार्थ:-भरतजी अपने मन में विचार करते हैं कि भाज अयोध्या में देवताओं के मन्दिर शून्य दीख रहे हैं और वे देव मन्दिर आज घेसे नहीं शोभ रहे हैं जैसे पहले शोमते थे, देव प्रतिमायें ( मूर्तियां ) पूजा रहित हो रही हैं और उनके ऊपर धूप-दीप.पुष्पादि चढ़े हुये नहीं दीखते, तथा यज्ञों के स्थान भी यक्षकार्य से घिरहित हैं।
इसके बाद दादाजी ने फिर कहा कि-कहिये श्रीमान् छज्जूरामजी और काकाजी, क्या अब भी आपको मूर्ति पूजा के विषय में कुछ सन्देह बाकी है ? क्योंकि पूर्वोक्त तीनों प्रमाण प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ महाभारत और पाल्मीकीय रामायण के हैं, जिनसे साफ मालुम होता है कि हमारे
और आपके पूर्वज देवमूर्ति पुजक थे, लोग आस्तिक थे ईश्वर के प्रति श्रद्धा और भक्ति पूर्ण थी, चूंकि यह बात प्रेता और द्वापर युग की है. इसलिये मूर्ति पूजा अत्यन्त प्राचीन है, लाखों वर्ष पहले से मूर्ति पूजा पार्यों के यहां होती पा रही है।
मार्य और काकाजी, अत्यन्त विनीत होकर-महात्मन् , मापके उपदेशों से अब हम लोगों को मुर्ति-पूजा के विषय में कुछ भी सन्देह नहीं रहा, मगर अब सवाल शिर्फ इतना है कि-'मूर्ति पर' फूल, फल, चन्दन, धूप, दीप, अक्षत और मिष्टान्न आदि पदार्थ क्यों चढ़ाते हैं क्योकि फूलों को मूर्ति पर चढाने से जीव हत्या होती है और उसका पाप फल पुजारी को होता है, एवं ईश्वरमूर्ति जब रागद्वेष रहित है तो फिर उस पर अक्षत और मिष्टान्न श्रादि चढाने की क्या आवश्यकता?
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