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( ७६) दादाजी-सुनोजी, अक्षर अजीब है, अक्षरों का समुदाय पद
होता है और पदों का समुदाय ही वाक्य या महा. धाक्य हैं, धार्मिक पुस्तकें वाक्य के समूह है, यानी सभी धार्मिक व्यवहारिक, वैज्ञानिक प्रादि पुस्तकें अजीव ही हैं और दुनियां के सभी विचारवान् पुरुष उन अजीव पुस्तकों से अपना अभीष्ट को सिद्ध कर लेते हैं, तो फिर 'अजीव प्रतिमा की सेवा से इच्छा पूरी नहीं होती यह आपका कहना बिलकुल असत्य
और उपहासास्पद है। और 'निशीथसूत्र' में लिखा है कि-जिन प्रतिमा के सामने पीठ देकर साधू नहीं बैठे, तथा 'व्यवहारसूत्र' में लिखा है कि-'साधु जिन प्रतिमाके संमुख पालोयणा लेवे इसलिये प्रतिमा में अजीव का कहना भी मिथ्या और भी देखिये किजैन सिद्धान्त में पाठों कर्म अजीव हैं, यदि अजीब जीव को कुछ नहीं करता तो कर्म जीव को संसार में भ्रमण नहीं कराता, किन्तु देख रहे हैं कि अजीव रूपी कर्मों से मारा हुआ जीव संसार के चारों गतियों
में सुख दुःस्त्र भोगता हुआ भ्रमण कर रहा है। पंथी-महाराज, भगवान् मुक्ति में है, फिर मन्दिरों में भगवान्
___ को क्यों मानते हैं ? दादाजी-सुनियेजी, "श्री ज्ञाताजी सूत्र" में द्रौपदी के अधि. कार में मन्दिर को जिनघर कहा है, जैसे"दोवह रायवरकन्ना मज्जनघरे निगच्छह निगच्छादत्ता जिणघर पवसई पवसइत्ता...............इत्यादि
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