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अनेकों प्रमाण हैं और भी सुनों-मगवती सूत्र के १० शतक ४ उद्देश में लिखा है कि
"नन्नथ्प अरिहन्ते वा अरिहन्त चेइयाणि वा भावी पो अणगारस्ल वा विस्लाए उटुंठे उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्प इति ।
भावार्थ:- जब चमरेन्द्र सौधर्म देवलोक में गया तब एक अरिहन्त का दूसरा चैत्य जिन प्रतिमा का तीसरा साधु का शरण लेकर गया । अब आप विचारिये कि यदि चैत्य का अर्थ साधु या मुनि होता तो यहां अलग नाम श्रणगार क्यों कहते ? अतः चैत्य का अर्थ जिनमन्दिर हो है ।
और भी सुनो, महाकला सूत्र में लिखा है कि
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'से भयवं समणोवासगस्स पोसहशालाए पोसहिए पोस हवं मयारी किं जिणहरं गच्छज्जा, हंता गोयमा गच्छेजा सि, भगवं केणवेणं गच्छेज्जा, जे कोइ पोसइसालाए योसहवं भयारी जो जिसहरे न गच्छेज्जा तो पायच्छित्तं हवेज्जा, गोयमा जहां साहु तहां भणिष्पवं झटुं श्रह वा दुवाल सं पायच्छित्त हवेज्जा ।
पूछा कि हे भगवन् !
पोषध - व्रत ब्रह्म
भावार्थ - भगवान् महावीर से गौतम ने श्रावक पोषधशाला में पोषध में रहा हुआ चारी जिनमन्दिर को जावे क्या ? भगवन ने कहा, हां, जावे, गोतम ने पूछा, भगवन् ! किस वास्ते जावे, भगवन् ने कहा, गोतम ! ज्ञान, दर्शन और चारित्र के लिये जावे । गोतम ने पूछा, हे भगवन् ! पोषधशाला में रहा हुआ पोषघत्रत ब्रह्मचारी जो कोई श्रावक जिनमन्दिर में नहीं जावे तो क्या उसे प्रायश्चित
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