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चञ्चल है । उस विस प्रसाधन के लिये भी प्राणायाम की सिद्धि आदि अनेक उपाय बसलाया, उनमें अधिक सुलमता के लिये एक सूत्र लिखा है कि
"वीतरागविषयं वा चित्तम् " . ...... (यो० द० समाधिपाद सूत्र ३७)
इसका भावार्थ यह है कि योगी को अपने चित्त को किसी वीतराग के चित्त जैसा कर लेना चाहिये, मगर पैसा चित्त करना उसके गुण कर्म और स्वभाव के अभ्यास से ही संभव है, और उसके गुण, कर्म, स्वभाव के अभ्यास की स्थिरता प्रथम उसकी मूर्ति को देखे या ध्यान में लाये विना नितरां असम्भव है, इसलिये दर्शन शास्त्र में भी मूर्ति-पूजा प्रत्यक्ष है।
और इस सूत्र की टीकाकार भी यही लिखते हैं, जैस
"वीतरागं सनकादिचित्तं तद्विषयध्यानात् ध्यातृवित्ताप सद्वत् स्थिरस्वभावं भवति, यथा कामुकचिन्तया चित्तमपि कामुकं भवति"।
भावार्थ:-राग रहित सनकादि ऋषियों का चित्त था, उन ऋषियों के ध्यान करने से ध्यानी योगी का भी चित्त वैसा ही स्थिर स्वभाव वाला हो जाता है, जैसे कामी की चिन्ता करने से चित्त कामुक हो जाता है । और इसके आगे महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं कि"यथाभिमतध्यानाद्वा"
( योगदर्शन, समाधिपाद, सूत्र ३६)
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