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(५२) भावार्थ:-शौचादि स्नान और दातन आदि करना और देवताओं का पूजन प्रातः काल में ही करना चाहिये । इस मनुस्मृति के श्लोक से देवताओं की पूजा से मूर्ति पूजा ही. सिद्ध होती है।
और भी सुनिये:.'नित्यं स्नात्वा शुचिःकुर्याद् देवर्षि-पितृ-तपर्णम् ।
देवताभ्यर्चनं चैव समिदाधानमेष च ॥
(मनुस्मृति अध्याय ४ श्लोक ) भावार्थ:-प्रतिदिन स्नान करके पवित्र होकर देष, ऋषि . तथा पितरों का तर्पण अपने अपने गृह्यसूत्र (पारस्पर गृह्य.. सत्रादि) के अनुसार करना चाहिए, अनन्तर शिव विष्णु मादि देव प्रतिमाओं के संमुखा पूजन करना चाहिये, फिर विधि पूर्वक समिाधान (हवन) कर्म करना चाहिये । इससे भी मूर्ति की पूजा की सिद्धि होती है। मार्य-महात्मन्, हम लोग 'देवताभ्यर्चन' शब्द से माता,
पिता और गुरु भादि का आदर सत्कार को मनाते हैं। बाबाजी नहीं जी, आपका यहां यह मानना भारी भूल है
क्योकि मनुस्मृति के द्वितीया ध्याय में माता, पिता,. गुरु आदि मान्यों की पूजा, श्रादर, सेषा भादि अलग अलग कही है, इसलिये उस अर्थ को यहाँ
नहीं ले सकते। मार्य-महात्मन् , खेर यह बात भी श्राप की हम ने मान ली,
मगर 'पवना अर्चन' शब्द से “ देवताओं की मूर्तियों
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