Book Title: Murti Puja Tattva Prakash
Author(s): Gangadhar Mishra
Publisher: Fulchand Hajarimal Vijapurwale

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Page 59
________________ (५५) तरह इस बात को मान भी लिया जाय तो भी आप जड़ पूजा से अलग किसी तरह भी नहीं हो सकते, क्योंकि श्राप तो विद्वान् के शरीर को ही पूजा करेंगे, मगर शरीर तो विद्वान् का भी जड़ ही है, इसलिये वह पूजा भी जड़ की ही पूजा हुई। आप आशङ्का करेंगे कि विद्वान के शरीर में चेतन आत्मा के होते हुये चेतन शरीर के पूजने से हम जड़ पूजक नहीं हो सकते, तो आप की ही तरह मूर्ति पूजक भी मूर्ति के पूजने से कभी भी जड़ पूजक नहीं कहा सकता, क्योंकि आप इस बात को मानते हैं कि ईश्वर सर्व व्यापक है, तो क्या सर्व व्याप्य से एक मूर्ति ही अलग रह गई? इसलिये आप को यहां देवता शब्द का अर्थ विद्वान नहीं मान कर शिव, विष्णु प्रादि देवता ही मानना चाहिये। और यदि इतने पर भी आप अपना बेकार हठ को नहीं छोड़ते तो और भी सुनिये: तडागान्युदपानानि वाप्यः प्रश्रवणानिच । सीमासन्धिषु कार्याणि देवतायतानानि च ॥ (मनुस्मृति, प्रत्याय ८ श्लोक २४८) भावार्थ:--तडाग (तालाब ), उदपान (प्याऊ), वापी (वावड़ी), प्रश्रवण जिस जगह से पानी निकल कर बहता हो ऐसी जगह, झरना आदि ) और देवतायतन (देव मन्दिर) इन सबों को सीमा सन्धियों (ग्राम, नगर प्रादि के अन्त ) में करना चाहिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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