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रख देते हैं ताकि नमाज में कोई विघ्न न हो जाय । यह जो लोटा या कपड़ा आदि स्थापना की चीज रखी जाती है सो भी खुदा के लिए एक तरह की कैद है यानी सम्भावनो की हुई चीज है ।
अच्छा मौलवी साहिब - आप एक पूरा प्रमाण और लीजिये मूत्र लिफ किताब दिलवस्तान मुज़ाहिब अपनी किताब में लिखते हैं कि - मुहम्मद साहिब जोहरा ( शुक्कर ) की पूजा करते थे, मालुम होता है कि मुसलमान लोग इसीलिये शुक्रवार को पवित्र जान कर प्रार्थना का दिन समझते हैं, और मुहम्मद साहिब का पिता मूर्त्ति की पूजा किया करता था । मौलवी साहब ज्यादा क्या कहें- श्रापके कोई मज्भब तो ताजिये को पूजते हैं, और कोई कुरान को और कोई कब्र को पूजते हैं इसलिये आप यदि इनसाफ करके विचारों और देखें तो आप लोग भी मूर्ति-पूजा से अलग नहीं हैं । अन्त में मौलवी साहब ने लज्जित होकर दादाजी को प्रणाम किया और कहा कि हां सावि, बात तो ऐसी ही है, अब मैं मूर्त्ति पूजा को मानता हूं और मेरी भूलचूक माफ करेंगे, मैं इतने दिनों तक भूल में पड़कर भटकता फिरता था, दर असल में हरएक शक्त को चाहिये कि वह अपने आगे की भलाई के लिये और गुजरते जीवन में सुख-शान्ति के लिये खुदा ( मगवान ) की ( तस्वीर ) (मूर्ति) की पूजा करे ।
इसके बाद दादाजी ने सरदार शेरसिंह सिक्ख की ओर देखकर बोला--क्यों सरदार साहब, आप तो 'मूर्ति-पूजा' को मानते हैं न ?
सरदार -- नहीं जी, हम जड़ मूर्त्ति की पूजा को किसी तरह भी नहीं मानते ।
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