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अब आप देखिये और अच्छी तरह विचारिये कि उपर्युक्त मनुस्मृति के श्लोक में यदि देवता शब्द का अर्थ विद्वान् करगे तो वह मसंगत और व्यर्थ हो जायगा, इसलिये देवता शब्द का अर्थ शिव, विष्णु मादि देवता ही यहां वास्तविक और प्रकरणानुकूल एवं मनुस्मृति के प्रसिद्ध टीकाकारानुसार बिलकुल ठीक है। आर्य-अतिशय विनीत होकर, दादाजी से पूछा-महात्मन्
मूर्ति के विषय में स्मृति की जो मेरी आशंका थी वह दूर हो गई, अब पाकर आप यह दिखावे कि क्या दर्शन-शास्त्र में भी मूर्ति पूजा का उल्लेख
कहीं पर है ? दादाजी-हां साहिब, दर्शन शास्त्र में भी 'मूर्ति पूजा' सम्बन्धी
बातें है, अच्छा, अब उन्हें भी आप ध्यान से
सुनिये:महर्षि पतञ्जलि कृत 'योग दर्शन' में योग की सिद्धि के लिये अनेक उपाय कहे गये हैं. जिनमें समाधिपाद के २३ वे सूत्र में लिखा है कि 'ईश्वर के प्रणिधान' से योग की सिद्धि होती अर्थात् कैवल्य पद की प्राप्ति होती है। प्रणिधान का अर्थ है कि ईश्वर विषयक धारणा ध्यान और समाधि इनकी सिद्धि होने से योग की सिद्धि होती है मगर निराकार ईश्वर के अनिर्वचनीय होने से उनकी धारणा, ध्यान और समाधि की सिद्धि अच्छे विद्वानों के लिये भी अत्यन्त कठिन टेढी-खीर है। इसलिये भगवान् पतञ्जलिने लोगों की सुलभता के लिए प्रथम चित्त का प्रसादन ही बतलाया, क्योंकि चित्त अत्यन्त
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