Book Title: Murti Puja Tattva Prakash
Author(s): Gangadhar Mishra
Publisher: Fulchand Hajarimal Vijapurwale

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Page 66
________________ ( ६२ ) अत्र पूर्व महादेवः प्रसादमकरोद्विभुः । एतत्तु दृश्यते तीर्थं सागरस्य महात्मनः ॥ सेतुबन्धमिति ख्यातं त्रैलोक्येन च पूजितम् । पतत्पवित्र परमं महापातकनाशनम् ॥ [ वाल्मीकीय रामायण उत्तर काण्ड अध्याय ] इस भावार्थ:- भगवान् श्री रामचन्द्रजी कहते हैं कि हे सीते !. यह महात्मा समुद्र का तीर्थ दीख रहा है, जहां हमने एक -रात्रि को निवास किया था। यहां जो सेतु दीख रहा है, इस को नल की सहायता से तुम को प्राप्त करने के लिये हमने बान्धा था। जरा समुद्र को तो देखो जो वरुण देव का घर है, में ऐसी ऊंची ऊंची लहरें उठ रही हैं, जिनकी ओर छोर भी नहीं मिलती, अनेक प्रकार के जल-जन्तुनों से भरे तथा शःख और सीपों से युक्त इस समुद्र में से निकले हुये सुवर्णमय इस पर्वत को देख जो हनुमान के विश्राम के लिये समुद्र' के वक्षःस्थल को फाड़ कर उत्पन्न हुआ है । यहीं पर विभु व्यापक श्री महादेवजी ने हमें वरदान दिया था। यह जो महात्मा समुद्र का तीर्थ दीखता है, सो सेतुबन्ध नाम से प्रसिद्ध है और तीनों लोकों से पूजित है। यह परम पवित्र है और महापातकों को नाश करने वाला हैं । यहां अन्तिम दो श्लोकों पर वाल्मीकीय रामायण के संस्कृत कार लिखते हैं कि "सेतोर्निविघ्नता सिद्धये समुद्र प्रसादानन्तरं शिवस्थापनं : रामेण कृतमिति गम्यते, कूर्म पुराणे रामचरिते तु श्रत्र स्थना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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