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- हाथ जोड़ कर अत्यन्त विनीत भाव से बोला :- नहीं महात्मन् ! हमें अब मूर्त्ति पूजा के विषय में कुछ भी संशय नहीं हैं, -की युक्तियों और प्रमाणों से हमारे सभी भ्रम दूर हो गये, इतने दिन हम अज्ञानता के वश होकर भूले हुये थे, इसीलिये मूर्ति"पूजा में विश्वास नहीं था, श्रद्धा नहीं थी और भक्ति का तो नाम निशान भी नहीं था, अतः मूर्त्ति पूजा की निन्दा ही करते थे, इसलिये हम सर्वज्ञ विभु वीतराग भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो ! आप के चरणों की अटल भक्ति दिनों दिन हम में बढ़े और पहले की सभी भूल चूक से उत्पन्न दुष्कर्म - परिणाम श्राप की भक्ति के पुण्य फल से विनाश होकर मुझे शाश्वत सुख-शान्ति की प्राप्ति हो, और हम यह प्रतिशा करते हैं कि अब सर्वदा प्रतिदिन 'मूर्त्ति पूजा करेंगे और मनुष्यमात्र को 'मूर्तिपूजा करनी चाहिये । इसके बाद दादाजी ने मौलवी अबदुल हुसेन की तरफ नजर करके बोले कि - क्यों मौलवी साहब, आप तो मूर्त्ति को मानते हैं ?
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मौलबी- नहीं जी, नहीं, हम मूर्त्ति को नहीं मानते, क्या आप यह नहीं जानते हैं कि हमारा मज्भब मूर्त्ति ' 'पूजक नहीं है ? हम लोग हिन्दूओं की तरह अन्ध विश्वासी नहीं हैं जो मूर्त्ति को पूजा करें, क्या पत्थर भी कभी खुदा हो सकता है ? और कोई भी अकलमन्द जड़ पत्थर आदि में खुदा को रहना मन्जूर कर सकता है ? इसलिये हम से ऐसा सवाल करना आप को बिलकुल बेकार है ।
दादाजी - एक कागज के टुकड़े पर 'खुदा' लिख कर मौलवी से कहा, क्या मौलवी साहब, आप इस कागज के
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