Book Title: Murti Puja Tattva Prakash
Author(s): Gangadhar Mishra
Publisher: Fulchand Hajarimal Vijapurwale

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Page 63
________________ ( ५६ ) "ततो निषादराजस्य हिरण्यधनुषः सुतः ।। एकलव्या महाराज! द्रोणमभ्याअगामह ॥ न स तं प्रतिजग्राह नेषादिरिति चिन्तयन् । शिष्यं धनुषि धर्मशस्तेषामेवान्यवेक्षया ।। स तु द्रोणस्य शिरसा पादौ स्पृष्टा परन्तपः । अरण्यमनुसम्प्राप्य कृत्वा द्रोणं महीमयम् ॥ तस्मिन्नाचार्यवृत्तिञ्च परमामास्थितस्तदा । इण्वस्त्र योगमातस्थे परं नियममास्थितः ॥ परया श्रद्धयोपेतो योगेन परमेण च । विमोक्षादानसन्धाने लघुत्वं परमाप सः॥ ..................... इत्यादि ॥ [महाभारत, श्रादि पर्व अध्याय १३४]' भावार्थ-जब द्रोणाचार्य के धनुर्विद्या की प्रशंसा दूर देशों तक फैल गई, तब एक दिन भिषदराज हिरण्यधनुष्य का लड़का एकलव्य धनुर्विद्या को सीखने के लिये प्राचार्य द्रोण के पास माया । आचार्य द्रोण ने शूद्र जानकर उसको धनुर्वेद की शिक्षा नहीं दी। तब वह एकलव्य अपना हृश्य में द्रोणाचार्य को गुरु मानकर और उनके चरणों को अपने मस्तक से छूकर बन में चला गया और वहां जाकर द्रोणाचार्य को एक मिट्टी की मूर्ति को बनाकर उसके सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। श्रद्धा की अधिकता और चित्त की एकाग्रता के कारण एकलव्य थोड़े ही दिनों में धनुर्विद्या में बहुत प्रवीण हो गया। एक समय द्रोणाचार्य के साथ कौरव और पाण्डव मृगया' (शिकार) खेलने के लिये बन में गये, साथ में पाण्डवों का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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