Book Title: Murti Puja Tattva Prakash
Author(s): Gangadhar Mishra
Publisher: Fulchand Hajarimal Vijapurwale

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Page 57
________________ (५३) की सम्मुख पूजा" भाप अर्थ करते हैं यहां पर मूर्ति तो अपनी तरफ से अधिक जोड़ते हैं। .. . वादाजी नहीं जी, नहीं, मैं अपनी तरफ से कुछ नहीं फर माता मैंने तो शास्त्रों की बाते ही आप से कहीसुनिये-पाणिनीय व्याकरण, अष्टाध्यायी के अध्याय ५ पाद ३ सूत्र 88 के अनुसार घासुदेव और शिव की प्रतिमाओं का नाम भी "कन्" . प्रत्यय का "लुप" होने पर वासुदेव और शिव ही होता है। इसी तरह देवताओं की प्रतिमाओं का नाम भी 'कन्' का 'लुप' हो जाने पर "देवता" ही कहा जा सकता है। जैसे" देवतायाः प्रतिकृतिर्देवता, तस्या अभ्यर्चनं देवताम्यर्चनम्" अर्थात् देवता की प्रतिमा देवता कही जा सकती और उसके सम्मुख होकर जो पजन उसे "देवताभ्यर्चन" कहते हैं। इसलिये मनुस्मृति में कहे हुये 'देवताभ्यर्चन' शब्द का स्पष्ट अर्थ यह है कि नियम पूर्वक पवित्र होकर शिव, विष्णु श्रादि देवमूर्तियों की पूजा अवश्यमेव करनी चाहिये। एवम् मनुस्मृति के टीकाकारों की राय भी देव-मूर्तियों के पूजने में ही है, जैसे(१) गोविन्दराजः-(देवतानां हरादीनां पुष्पादिनाऽर्चनम् ) । (२) मेधातिथि:-(अतः प्रतिमानामेव एतत्पूजन विधानम् )। (३) कुल्लूकभट्टः-(प्रतिमादिषु हरि-हरादि-देव-पूजनम् )। (४) सर्वज्ञनारायणः-(देवतानाम् अर्चनं पुष्पाद्यः)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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