Book Title: Murti Puja Tattva Prakash
Author(s): Gangadhar Mishra
Publisher: Fulchand Hajarimal Vijapurwale

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Page 53
________________ (४६) एषोह देवः प्रदिशोऽनुसर्वाः पूर्वोहजातः स ह गर्भ अंतः। स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतो मुस्खः । (यजु० अध्या० ३२) भावार्थ:-यह जो पूर्वोक ईश्वर सबही दिशा विविशाओं में नाना रूप धारण करके ठहरा हुमा है, वही सृष्टि के प्रारम्भ में हिरण्यगर्भ रूप से उत्पन्न हुआ और वही गर्भ के भीतर आया और वही उत्पन्न हुमा पळू वही फिर उत्पन्न होगा जोकि सबके भीतर (अन्तःकरणों) में ठहरा हुमा है और जो अनेक रूप धारण करके सभी ओर मुखों वाला होरहा है। - इससे तो ईश्वर का शरीरधारी होना एक दम साफ है। और भी सुनिये"आयो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वषिरुणुसे पुरूणि"। (अथर्ववेद ।५।१।१२) भावार्थ:-हे ईश्वर ! जिन मापने सृष्टि के प्रारम्भ में धर्मों की स्थापना की, उन्हीं मापने बहुत से वपु (शरीर) अवतार रूप धारण किये हैं। इससे भी ईश्वर के शरीर का होना सिद्ध होता है। और भी सुनिये"पहश्मानमातिष्टाश्मा भवतु ते तनूः"। (अथर्वण वेद ।२।१२।४) भावार्थ:-हे ईश्वर ! तुम प्रोमो और इस पत्थर की मूर्ति में स्थित होजामो और यह पत्थर की मूर्ति तुम्हारी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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