Book Title: Murti Puja Tattva Prakash
Author(s): Gangadhar Mishra
Publisher: Fulchand Hajarimal Vijapurwale

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Page 27
________________ (२३) अर्थात् स्वामीजी विद्वान थे, वे मूर्ति पूजा को मानते थे। काकाजी-आश्चर्य के माथ, महाराज, आप यह क्या कह रहे हैं ? भला ऐसा कभी हो सकता है, यदि ऐसी बात है तो कहां जरा दिखलावें। दादाजी-सुनोजी साहय, दिखलाता हूँ कि-सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक के ३७ पृष्ठ में स्वामी जी ने लिखा है किहवन करने के लिये इतनी लम्बी चौड़ी और ऐसी चतुष्कोण वेदी होनी चाहिये, ऐसा प्रोक्षणी पात्र और ऐसा प्रणिता पात्र होने चाहिये । अब जरा अकल से काम लो कि यदि स्वामीजी मूर्ति को नहीं मानते तो अपना खास ग्रन्थ में इसे क्यों लिखते ? अथवा शिर्फ कह कर ही समझा देते फिर चित्र (आकार) देकर व्याख्या करने की क्या आवश्यकता थी ? इस लिये स्वामीजी भी मूर्ति को मानते थे। काकाजी-महाराज, हम उन चित्रों को ठीक वेदी तो नहीं मानते किन्तु असली वेदी आदि के ज्ञान में निमित्त मानते हैं। दादाजी-विहंस कर, वाहजी वाह-श्राप जैसे उन चित्रों को असली वेदी के ज्ञान में निमित्त मानते हैं, उसी तरह मूर्ति-पूजक भी वास्तविक ईश्वर के ज्ञान में उस पत्थर की मूर्ति को हेतु मानते हैं। काकाजी-वेदी आदि वस्तु साकार होने से बन सकती है, मगर ईश्वर तो निराकार है, केवल ज्ञान गम्य और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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