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( ३० )
आर्य छज्जूरामजी - नहीं महाराज, हम स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुयायी होकर मूत्ति-पूजा को कभी मान सकते हैं, कभी नहीं, बिलकुल नहीं।
-दादाजी -- महाशय, यदि आप ज्ञानानन्द सरस्वती के बत्तों को ध्यान देकर विचार करें तो आपको कहना पड़ेगा कि मूर्ति-पूजा जड़-पूजा में शामिल नहीं है, बल्कि वह चेतन की पूजा कही जा सकती ।
आर्य - महाराज, यदि ऐसी बात है तो आप कोई दृष्टान्त देकर अच्छी तरह बतलावें ।
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-दादाजी - अच्छी बात है आप ध्यान देकर सुनिये - कि यदि आप दयानन्द सरस्वतीजी जैसे संन्यासी विद्वान् जो थकान में हों, उनकी सेवा करें तो क्या आपको उस सेवा का फल मिलेगा ? |
आर्य- क्यों नहीं मिलेगा ? अवश्य मिलेगा ।
- दादाजी - शावश, यह सेवा जिसको आपने किया है, जड़ शरीर की ही सेवा किया है, तो फिर आप इसको फल क्योंकर मानते हैं ?
आर्य- नहीं, महाराज, विद्वान् का शरीर जड़ नहीं है, उसमें तो जीवात्मा वर्तमान है ।
-दादाजी - ठीक है, आप शरीर में जीवात्मा के होने से चेतन की सेवा को मानते हैं और दुनियां भी मानती है, मगर दर असल में सेवा तो जड़ शरीर की ही होती है । क्योंकि जीवात्मा तो निराकार है फिर उसकी
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