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(२६) उसके लिये साकार ईश्वर नहीं है। दादाजी-निराकार के जैसा साकार ईश्वर भी सभी के लिये है,
मगर जो नहीं मानता वह उसकी मूर्खता है और उपर्युक्त श्लोक जैसे मान्य वाक्यों में भी जिसको थक्षा नहीं होती और संशय होता है, उसको क्या
होता है सुनोःअक्षश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥
[गीता अ० ४ श्लोक ४०] अर्थात् जो श्रात्म-ज्ञान से रहित है, जिसको श्रद्धा नहीं है और जो संशयात्मा है यानी अच्छी बुरी प्रत्येक बातों में जिसको सन्देह बना रहता है वह नाश होजाता है, क्योंकि संशयात्मा को तो न यही लोक है न दूसरा लोक है और न सुख ही है। इसी तरह पक भावुक हृदय का भक्ति-भावित सरस उद्गार और सुनो
जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी खोजन चली, रही किनारे बैठ॥ काकाजी-कुछ मन मुटाव होकर, महाराज-माज अब शाम
होगई, श्राशा हो तो फिर कल अपने पाँचों मित्रों
को लेकर आऊँ, अभी घर को जाता हूँ। दादाजी-बहुत अच्छा. जाइये, अब मुझे भी सन्ध्या, पूजा,
पाठ, श्रादि करना है और कल आपकी तबियत में जचे तो ५ के अलावा दर्जनों अपने मित्रों को लावेंगे और अवश्य आयेंगे।
काल"
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