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(७) "खुशी मियां मिट्ट की
अपनी दोड़ी रक्खे या मुंडाले" इसलिये जिन भाइयों के शून्य हृदयागार में अपनी कुटिलकराल कृष्ण पक्ष की बलात्कार स्थापना करने का जिद्द है, उनके लिये तो यह मूर्ति पूजा का सप्रमाण सोपपत्तिक तर्कयुक्त सरस सविस्तर भी लेख कौड़ी काम का नहीं होगा, मगर हां, जो सत्य और असत्य के निर्णायक हैं, श्रद्धालु हैं, विचारवान् हैं और मननशील होकर भले बुरे का विचार करते हैं उनको तो दिव्य दृष्टि के जैसा काम देगा, अर्थात् मनुष्य जनोपयोगी बहुत सामग्री इसमें विचार-चक्षु के द्वारा दीख पड़ेगा। साथ ही निविवेकियों के लिये तो पहले भी कुछ कहा जा चुका है
और फिर भी कहना पड़ता है कि-अच्छी अच्छी युक्तियों से भरपुर लोकशास्त्र संमत सर्वोपयोगी कल्याणकारक उपदेश भी उन्हें सुनाया जाय या पढ़ने के लिये दिया जाय तो वह 'अरण्य रोदन' या 'जल-ताड़न' के जैसा होता है, इसीलिये महात्मा तुलसीदास ने अपनी गमायण ( रामचरित मानस ) में इनको किस तरह वर्णन किया है, ध्यान देकर देखिये पढ़िये सुनिये और मनन कीजिये
"फूलै फलै न वेत, यदपि सुधा वह जलद । मूढ़ हृदय नहि चेत, जो गुरु मिलय विरंचि सम ॥" बस, अब आपको मूर्य के लक्षणों को जानने के लिये यह ऊपर का सोरठो ही काफी है। मगर मूर्ख भी दो तरह के होते हैं-एक साधारण मूर्ख और दूसरा विशेष मूर्ख । इनमें साधारण मूर्ख तो किसी प्रतिभाशाली सर्वोपकारी विद्वान् महात्मा के
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