________________
[ मलाचारस्य
उज्झनशुद्धि वाक्यशद्धि तपःशुद्धि ध्यानशुद्धि अनगार भावना का प्रयोजन और उपसंहार
८३८-८५४ ८५५-८६३ ८६४-८७४ ८७५-८८६ ८९०-८६३
७६-८३ ८४-६० ६०-६६ ६६-१०४ १०४-१०६
१०७
१०८-१०६
१११-११२ ११२-११३ ११३-११४ ११५-११६ ११६-११७
१०. समयसाराधिकार मङ्गलाचरण और प्रतिज्ञा
८६४ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप समय हैउनमें सारभूत चारित्र है तथा वैराग्य भी समय का सार है
८६५-८६६ सम्यक्चारित्र धारण करने का उपदेश
८६७-८९८ साधुपद में चारित्र की प्रधानता है, श्रुत की नहीं। ८६६-६०० ज्ञान, तप और संयम का संयोग मोक्ष का साधक है। ६०१-६०२ सम्यग्ज्ञानादि से युक्त तप और ध्यान की महिमा १०३-६०४ सम्यग्दर्शन का माहात्म्य
९०५-६०६ सम्यक्चारित्र से सुगति होती है
९०७-६०८ चारित्र की रक्षा के लिए पिण्डादि शुद्धियों का विधान ६.६ निर्ग्रन्थलिंग के भेद व स्वरूप
६१. अचेलकत्व आदि दश श्रमणकल्प
६११ प्रतिलेखन-पिच्छी के गुण और उसकी आवश्यकता ६१२-६१६ निर्ग्रन्थ लिंग से युक्त मुनि के आचरण का फल ६१७ पिण्डशद्धि आदि न करने वाले साधु का दोष-निरूपण ६१८-६२३ अधःकर्म के दोषों का कथन
६२४-६३४ चारित्रहीन मुनि का बहुश्रुत-ज्ञान निरर्थक है परिणाम के निमित्त से शुद्धि होती है
६३६-९३८ चर्याशुद्धि का प्रयोजन
६३६-६४१ गुणस्थान की अपेक्षा चारित्र का माहात्म्य ।
९४२ शोधनक्रियाओं-निर्दोष क्रियाओं के संयोग से कर्मक्षय होता है
६४३-६५० क्षेत्रशुद्धि का कथन
६५१-६५५ संसर्ग के गुण-दोषों का वर्णन, तथा किनका संसर्ग नहीं करना चाहिए?
६५६-६६० पाप-श्रमण का लक्षण
६६१-६६५ अभ्यन्तर योग के बिना बाह्य योग की निष्फलता
११६ १२०-१२२ १२३ १२४-१२६ १२६-१३० १३० १३०-१३१ १३२-१३३ १३६.१३४
१३५-१३७ १३-१४०
१४०-१४३ १४३-१४४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.