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धर्मरूपी सूर्यदेव अस्तंगिन हो गया था ।"
तात्पर्य यह है कि तीर्थंकर वृषभदेव से लेकर पुष्पदन्त तक धर्म परम्परा अव्युच्छिन्न रूप से चली आई थी । पुनः पुष्पदन्त के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्म का अभाव रहा है । अनन्तर जब शीतलनाथ तीर्थंकर हुए तब धर्मतीर्थ चला। उनके तीर्थ में भी अर्धपत्य तक धर्म का अभाव रहा ऐसे ही धेयांसनाथ के तीर्थ में पोन पत्य, वासुपूज्य के तीर्थ में एक पल्प, विमलनाथ के तीर्थ में पौन पल्प, अनन्तनाथ के तीर्थ में अर्ध पस्य और धर्मनार्थ के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्म का अभाव रहा है । अर्थात् कोई भी मनुष्य जैनेश्वरी दीक्षा लेनेवाले नहीं हुए, अतः धर्म का अभाव हो गया ।
[मूलाचार
यहाँ पर यह बात समझने की है कि मुनिसंघ के बिना धर्म की परम्परा नहीं चल सकती है। इसी का स्पष्टीकरण और भी देखिए श्री यतिवृषभाचार्य के शब्दों में
गौतम स्वामी से लेकर अंग-पूर्व के एक देश के जाननेवाले मुनियों की परम्परा के काल का प्रमाण छह सौ तेरासी (६८३) वर्ष होता है। उसके बाद
"जो श्रुततीर्थ धर्म-प्रवर्तन का कारण है, वह बीस हजार तीन सौ सत्रह वर्षों में काल-दोष से व्युच्छद को प्राप्त हो जायेगा ।" अर्थात् इक्कीस हजार ( ६८३+२०३१७ = २१०००) वर्ष का यह पंचम काल है तब तक धर्म रहेगा, अन्त में व्युच्छेद को प्राप्त हो जायेगा ।
इतने पूरे समय तक चातुर्वर्ण्य संघ जन्म लेता रहेगा, किन्तु लोग प्रायः अविनीत, दुर्बुद्धि, असूयक, सात भय व आठ मदों से संयुक्त, शल्य एवं गावों से सहित, कलहप्रिय, रागिष्ठ, क्रूर एवं श्रोषी होंगे।"
इन पक्तियों से बिल्कुल ही स्पष्ट है कि इक्कीस हजार वर्ष के इस काल में हमेशा चातुर्वर्ण्य संघ रहेगा। पश्चात् मुनि के अभाव में धर्म, राजा और अग्नि का भी अभाव हो जावेगा यथा
"इस पंचम काल के अन्त में इक्कीसवां कल्की होगा। उसके समय में वीरांगज नामक एक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा अग्निदत्त और पंगुश्री नामक श्रावक युगल होंगे। एक दिन कल्की की आज्ञा से मन्त्री द्वारा मुनि के प्रथम प्रास को शुरूकरूप से मांगे जाने पर मुनि अन्तराय करके वापस आ जायेंगे। उसी समय अवधिज्ञान को प्राप्तकर, 'दुषमाकाल का अन्त आ गया है' ऐसा जानकर, प्रसन्न चित्त होते हुए, अविका और श्रावक युगल को बुलाकर वे चारों जन चतुराहार का त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लेगें। और तीन दिन बाद कार्तिक कृष्ण अमावस्या के स्वाति नक्षत्र में शरीर को छोड़कर देवपद प्राप्त करेंगे।
उसी दिन मध्याह्नकाल में क्रोध को प्राप्त कोई असुरकुमारदेव राजा को मार डालेगा और सूर्यास्त के समय अग्नि नष्ट हो जावेगी।
इसके पश्चात् तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष के बीत जाने पर महाविषम छठा काल प्रवेश करेगा।" इन वीरांगज मुनि के पहले-पहले मुनियों का विहार हमेशा इस पृथ्वीतल पर होता ही रहेगा ।
-अधिकारन शानमती
१. हुण्डावसप्पिणिस्स य दोसेणं सत्त होंति विच्छेदा
दिखाहिमहाभावे अत्यमिदो धम्मरविदेओ ।।१२८०॥ तिलोयपण त्ति, ०४, पृ० ३१३ २. तिलोय० अ० ४ गाथा १४६३ ।
३. तेतिमेते काले जम्मिस्सदि पाठवण्णसंपाओ। विलोम० अ० ४, वा० १४६४-६५
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