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। मूलाचार सत्यपंथ निग्रन्थ दिगम्बर, कही सुरीतहं प्रकट पुकार ।
मो गुरुदेव वसो उर मेरे विघ्नहरण मगलकरतार ॥१॥
इस प्रकरण से आचार्य श्री कुन्दकुन्द द्वार: गिरनारपर्वत पर श्वेताम्बर साधुओं से विवाद होकर निर्ग्रन्थ दिगम्बर पन्थ ही सत्य है-यह बात सरस्वती मूर्ति से कहला देने की कथा सत्य सिद्ध हो जाती है ।
___ नन्दिसंघ की पट्टावली में तो एक-एक आचार्य किस संवत् में पट्टानीन हुए इसका उल्लेख भी किया गया है । यथा-१. भद्रबाहु द्वितीय (४), २. गुप्तिगुप्त (२६), ३. माघनन्दी (३६), ४. जिनचन्द्र (४०), ५. कुन्दकुन्दाचार्य (४६), ६. उमास्वामी (१०१), इत्यादि ।'
अर्थात् भद्रबाहु द्वितीय, विक्रम संवत् ४ में पट्ट पर बैठे, उनके पट्ट पर गुप्तिगुप्त वि० सं० २६ में आसीन हुए, इत्यादि ।
आज भी भावलिंगी दिगम्बर मुनि होते हैं
श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं
"भरहे दुस्समकाले घम्मज्माणं हवेइ साहुस्स ।
त अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी ।।७६।।
अर्थात् इस भरत क्षेत्र में दुषमकाल में मुनि को आत्मस्वभाव में स्थित होने पर धर्मध्यान होता है। जो ऐसे नहीं मानता है. वह अज्ञानी है .
अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा माएवि लहइ ईदत्त।
लोयंत्तियदेवत्त तत्व चुदा णिवि जति ।।७७।।
अर्थात् आज भी, इस पंचमकाल में, रत्नत्रय से शुद्ध आत्मा (मुनि) आत्मध्यान करके इन्द्रत्व और लोकांतिक देव के पद को प्राप्त कर लेते हैं और वहां से च्युत होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।"२
पद्मनन्दि आचार्य कहते हैं
"संप्रत्यस्ति न केवली किल किलो त्रैलोक्यचूममणि , तद्वाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगव्योतिकाः । सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरास्तामा समालबनं,
तत्पूजा जिनवाचि पूजनमतः सामाज्जिनः पूजितः ॥६८|| -इस समय भरतक्षेत्र में त्रैलोक्य-चूड़ामणि केवली भगवान नहीं हैं, फिर भी लोक को प्रकाशित करनेवाले उनके वचन तो यहाँ विद्यमान, और उनके वचनों का अवलम्बन लेने वाले रत्नत्रयधारी श्रेष्ठ यतिगण भी मौजूद हैं, इसलिए उन मुनियों की पूजा जिन-वचनों की पूजा है और जिन-वचन की पूजा से साक्षात जिनदेव की पूजा की गई है ऐसा समझना।'
१. देखिए, नन्दिसंघ की पट्टावलि के आचार्यों की नामावली (इण्डियन एण्टीक्वेरी के आधार पर)
तथा 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग ४, १० ४४१ २. प्रवचनसार, गाथा २३०-२३१ । ३. पद्मनन्दिपंचविशतिका, पृ० ३१
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