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अप्रमाद सूत्र : 2
वोच्छिन्द सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं से सव्वसिणेहवज्जिए, समयं गोयम! मा पमायए ।। तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ ।
अभितर पारं गमितए, समयं गोयम! मा पमायए ।।
जैसे कमल शरद-काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता और अलिप्त रहता है, वैसे ही संसार से अपनी समस्त आसक्तियां मिटाकर स प्रकार के स्नेहबंधनों से रहित हो जा । अतः गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।
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तू इस प्रपंचमय विशाल संसार - समुद्र को तैर चुका है। भला किनारे पहुंचकर तू क्यों अटक रहा है? उस पार पहुंचने के लिए शीघ्रता कर । हे गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।
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