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प्रथम परिच्छेद
[ १९ * ८ पलिदेवकी बात सुनकर रति बड़े असमंजस में पड़ गयी है वह कहने लगो-म्वामिन्, पापको उचित-अनुचितका कोई विवेक नहीं है । नीतिकारोंने ठोक ही कहा है :
"अपनी पत्नी के सुलभ रहनेपर भी नीच पुरुष सन्तोषकी साँस नहीं लेता। इसपर भी वह पर-स्त्री-लम्पट बनता है। कौवाका भी तो यही हाल है । उसे भरे हुए तालाबका पानी पसन्द नहीं। घड़े के राके हुए पानीसे हो उसे सन्तोष होता है।"
रति कहने लगो-देव, फिर क्या किसीने कभी अपनी पत्नीसे भी दूतका काम लिया है, जो कार्य प्राप मुझे सौंपने चले हैं ?
मकरध्वजने कहा-प्रिये, तुमने बात तो बिलकुल सच कही है, लेकिन तुम्हीं सोचकर बतलायो, क्या यह कार्य तुम्हारे बिना संभव है ? यह कार्य मैं तुम्हें इसलिए सौंप रहा हूँ कि स्त्रिया ही स्त्रियों के प्रति अधिक विश्वासशील दखी जाता है। कहा भी है
"हिरन हिरनोंका सहवास पसन्द करते हैं, स्त्रियां स्त्रियोंका, घोड़े घोड़ोंका, मूर्ख मूल्का और विद्वान् विद्वानोंका। ठीक है, मित्रता समान शोल-व्यसनवालोंमें हुमा करती है।"
मकरध्वजकी बात सुनकर रतिको बड़ो चिन्ता हुई। उसने मकरध्व जसे कहा- देव, आप ठीक कहते हैं । परन्तु आपको मुक्तिकन्या प्राप्त नहीं हो सकती । क्योंकि जिस प्रकार
"कौवामें पवित्रता, जुवारियों में सत्य, सर्पमें क्षमा, स्त्रियों में कामकी उपशान्ति, नपुसकमें धैर्य और मद्य पीनेवाले में विवेकबुद्धि नहीं हो सकतो उसी प्रकार सिद्धि-कन्या भी तुम्हारी पत्नी नहीं बन सकती।" ___ फिर देव, वह सिद्धि-कन्या जिनराजको छोड़कर और किसीका नाम तक नहीं लेती है। अन्यको वरण करनेकी तो बात ही छोडिए । सिद्धि-कन्याके सम्बन्धमें कहा भी जाता है :