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जिनराजकी बात सुनकर भोह कहने लगा-परे जिन. आप यह क्या कह रहे हैं? पहले मेरे साथ तो लड़ लो । जब तक मैं जीवित हूँ, कामको कौन जीत सकता है ? फिर स्वामी के लिए अगर मुझे अपने प्राणों की बलि भी देनी पड़े तो मैं कत्तध्य समझकर उसे देने के लिए सहर्ष तैयार हूँ। रणसे भाग जाना अनुचरका कर्तव्य नहीं है। कहा भी है :
'युद्ध में विजयी होनेपर लक्ष्मी मिलती है। मरनेपर देवाजनाएं मिलती हैं। माया तो क्षणभरमें विलीन हो जाने वाली है । फिर रण में मर जानेकी कौन चिन्ता?" तथा
"श्रो भृत्य भक्ति के साथ स्वामीके लिए प्राण-परित्याग करता है, उसे इस लोकमें कीत्ति और यश मिलता है तथा परलोकमें उत्तम गति ।" इस सम्बन्धमें और भी कहा है :
"जो व्यक्ति स्वामी के लिए, ब्राह्मणके लिए, गायके लिए, स्त्रीके लिए और स्थानके लिए प्राणोंका परित्याग करता है उसे परलोकर्मे सदैव सुख मिलता है।"
इस प्रकार जिस समय जिनराज और मोहका इस तरह परस्परमें रणसम्बन्धी विवाद चल रहा था, धर्मध्यान क्रुद्ध होकर मा उपस्थित हुआ पौर चार प्रकारके बाणोंसे मोहको आहत करके उसे शतखण्कोंके रूपमें पृथिवीपर बिखरा दिया।
तदनन्तर जिनशाजने अपनी सेना लेकर काम का पीछा किया। जब कामने सेनासहित जिनराजको अपना पीछा करते हुए देखा तो वह अत्यन्त व्याकुल हो गया। उस समय उसे न अपनी सुध रही, न स्त्रीकी, न धनुष-बारणकी और न ही अश्व, रथ, हाथी और पदातियोंकी ही इसके विपरीत उस समय उसे भागने के सिवाय और कुछ सूझ ही न पड़ा और फलतः उसने भागना शुरू कर दिया । इतने में,