Book Title: Madan Parajay
Author(s): Nagdev, Lalbahaddur Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 175
________________ १७ गणय "प्राकार, इंगित, गति, चेष्टा और भाषणसे, नेत्र और मुखके विकारोंसे मनके भीतरकी बात पहचानी जा सकती है।" रतिफी बात सुनकर जिन राज हंस पड़े और कहने लगे- हे रति, तुम डरो मत । यह कभी न होगा। यह संभव नहीं है कि शुक्लध्यानवीर हमारी बात न माने और तुमलोगोंको मार गले इस प्रकार कहकर जिनराजने शुक्लध्यानवीरको रसि और प्रीति के साथ भेज दिया। तदुपरान्त रति और प्रीति वहां से चलकर काम के पास आयी और काम से कहने लगीं-नाय, प्रापकी प्राणरक्षाके लिए हम लोगोंने जिनराजसे अनेक प्रकारको अनुनय-विनय की श्रीर यदि हम लोगोंने उनकी इस प्रकार से स्तुति-प्रार्थना न की होती तो आपको प्राणरक्षा असम्भव थी। इस समय जिनराजने 'दर्शनवीरसे लिखवाकर एक स्वदेश-सीमापत्र दिया है, जिसे पाप पढ़ लीजिए । अतः हम लोग जिनराजके देशको सीमा छोड़कर अन्यत्र के लिए चल दें और वहाँ शान्तिके साथ जीवनयापन करें। इस समय देव प्रतिकूल है। और पता नहीं, उसके मन में क्या समाया हुआ है ? इसके अतिरिक्त जिनराजने हमलोगों को कुछ दूर तक भिजवानेके लिए शुक्लध्यानवीरको साथमें भेजा है । इसलिए अब हमें यहाँसे चल ही देना चाहिए। रति और प्रीतिकी बात सुनकर काम अपने मनमें सोचने लगा-- कि अब क्या करना चाहिए? शुक्लध्यान हमारा सहघर बनाया गया है, जो हमारे हकमें कदापि शुभकर न होगा। यदि में शुक्लध्यानवीरको दृष्टि में प्रा गया तो यह अवश्य ही हमारे ऊपर प्रहार करनेसे न चूकेगा। इसलिए इस शुक्लध्यानवीरका क्या विश्वास किया जाय ? कहा भी है

Loading...

Page Navigation
1 ... 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195