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पंचम परिच्छेद
[ १५५ श्रीनाभिन रेशके पुत्र श्रीवषम तो बर हैं। तीर्थकरत्व उनका गोत्र है। रूपसे सुवर्ण-सुन्दर हैं। उनका वक्षःस्थल विशाल है । वे सबके प्रिय हैं और १००८ शुभ लकरणोंसे सम्पन्न उनका शरीर है । वे चौरासी लाख उत्तर गुणोंसे सम्पन्न और शाश्वत सम्पत्तिसे संयुक्त हैं। आकर्णदीर्ध और कमलके समान उनके नेत्र हैं । एक योजनकी लम्बी भुजाएं हैं। मैं उस वरके सौन्दर्यका कहाँ तक वर्णन करू जिसकी ऊँचाई पांच सौ धनुषप्रमाण है।
दया-द्वारा बतलायी गयो वर महोदयकी समस्त गुण-गाथा सुनकर सिद्धसेनको बड़ी प्रसन्नता हुई। यह दयासे कहने लगे-दया, प्रच्छी बात है। तुम इन्द्र के पास जाओ और कहो कि सिद्धरेन अपनी कायाको ला रहे हैं, तबतक स्वयंवरकी तैयारी करो। यह भी कहना कि वे अपने साय यमराजके मन्दिरमें रखा हुआ अपना विशाल कर्मधनुष भी साथमें लावेंगे।
सिरसेनकी बात सुनकर दयाको बड़ी प्रसन्नता हुई । वह शीघ्र ही मोक्षपुरसे चल पड़ी और इन्द्रके पास पहुँचकर समस्त वृत्तान्त सुना दिया।
इन्द्रने जैसे ही दया-द्वारा बतलाया गया समस्त समाचार सुना, कुबेरको बुलाकर वे उसे तत्काल इस प्रकारका आदेश देने लगे
कुबेर, तुम तुरन्त एक समवशरण नामक मण्डप तयार करो, जिसे देखकर समस्त देव और मानवों का मन आह्लादित हो जाय ।
इन्द्र के प्राज्ञानुसार कुबेरने समवशरण मण्डगकी रचना की, जिसमें २०००० सोढ़ियां थीं और जो भृङ्गार, ताल, फलश, ध्वजा, चामर, श्वेत छत्र. दर्षण. स्तम्भ, गोपुर, निधि, मार्ग तालाध, लता उद्यान, धूपघट, सुवर्ण, निर्मल मुक्ता फलसे सुशोभित और चार