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मदनपराजय इस प्रकार सोचकर उसने उस सिंहको लाल-काले-पीले और नीले रंगोंसे चित्रित करना प्रारम्भ कर दिया। जब चित्रकार उस सिंहको इस प्रकार रंगानुरञ्जित कर चुका तो मन्त्रसिद्धिके निकट गया और बोला-मित्र, उठो-उठो, अब तुम्हारे अगनेका नम्बर मा गया है। इस प्रकार मन्त्रसिद्धिको जगाकर चित्रकार सो गया।
मन्त्रसिद्धि जैसे ही उठा, उसने अपने साग एक महाभयंकर, सर्वागपूर्ण, जीता-जागता लकड़ीका सिंह देखा और इसे देखते ही वह डर गया। उसने सोचा - इस समय क्या करना उचित है। मालूम देता है, आज सबकी मौत आ गयी है। यह सोचते ही वह तुरन्त धीमी गतिसे मित्रोंके निकट पहुंचा और उनसे कहने लगा-मित्रों, उठिए, उठिए । जंगलमें कोई भयंकर जन्तु आ गया है।
मन्वसिद्धिका कोलाहल सुनकर तीनों साथी उठ बैठे। वे कहने लगे--मित्र, आप हम लोगोंको व्यर्थ ही क्यों व्याकुल कर रहे हैं ? मन्त्रसिद्धि बोला-परे, देखिए तो यह सामनेका जन्तु, जिसे मैंने मन्त्रसे कीलित कर दिया है और जो इसी कारणसे आगे नहीं बढ़ पा रहा है । मन्त्रसिद्धिकी बात सुनकर उसके साथी हँस पड़े और कहने लगे-अरे मित्र, यह तो लकड़ीका शेर है | क्या तुम इतना ही नहीं पहचान सके। ये मागे कहने लगे-हम दोनोंने इस लकड़ीके केसरोमें अपनी विद्याका चमत्कार दिखलाया है। यही कारण है जो तुम इसे सजीव सिंह समझ बैठे ।
मित्रोंकी बात सुनकर मन्त्रसिद्धि उस लकड़ीके सिंहके पास गया और उसे वास्तविक लकड़ीका शेर पाकर बहुत लज्जित हुमा । वह अपने साथियों से कहने लगा-मित्रों, इस लकड़ीके शेरमें प्रसंगानुसार प्राप लोग तो अपनो विद्याका चमत्कार दिखला चुके हैं । अब मेरो विचाका भो चमत्कार देखिए । अपने विद्या-बलसे मैं इसे जीवित न कर दूं तो मैं मन्त्रसिद्धि ही किस कामका ?