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मदनपराजय
अन्यच्च
वचस्तत्र प्रयोक्तव्यं यत्रोक्त लभते फलम् । स्थायी भवति चास्यन्तं रागः शुक्लपटे यथा ॥६६॥ तवाकर्ण्य मदनेनोक्तम्-हे प्रिये, वचनमेतधाकणंयसुरासुरेन्द्रोरगमानवाद्या जिताः समस्ताः स्ववशीकृता
यः । ते सन्ति मे पाणितले च बाणास्तस्कि न लज्जेत्र
पलायनेन ?॥६७।। एवमुक्त्वा मदनमोहनदशीकरणोन्मोवनस्तम्भनेतिपंचविधकुसुमबाणावली शरासने सम्बित्वा (सन्धाय) मनोगजमारुह्य व्रततरं धावन स मदनः समराङ्गणे गत्वा जिनसम्मुसमवोचत्-अरे रे जिन, पुरा मया सह सङग्रामं कृत्वा पश्चास्सिद्धिवराङ्गनापरिणयनं कुछ । मुक्त्यङ्गनालिङ्गनसुखं मे बाणावल्येव ते दास्यति ।
* १३ तदनन्तर मोहने जैसे हो रथोंके संघर्ष, घोड़ोंकी हिनहिनाहट मदमस हाथियोंकी चिंघाड़, उड़ती हुई पताकाएँ और सामने पर बढ़ाते हुये महान् योधानोंसे पूरित जिनराजको सेना देखी, उसे प्रत्यन्त क्रोध हो पाया और आगे बढ़कर उसने अन्धकार-स्तम्भ गाड़ दिया तथा केवलज्ञानवीरसे कहने लगा -- केवलज्ञानवीर, सावधान हो जायो । यदि हमारे साथ युद्ध करने की हिम्मत हो तो तुरन्त हमारे सामने प्रायो। यदि तुम्हें हमारे आघातौंका डर हो तो चुपचाप भाग जायो। मुफ्तमें मरना क्यों चाहते हो? मोहकी बात सुनकर केवलज्ञान वीरको क्रोध हो पाया। वह कहने लगा-अरे अधम, क्या बकता है ? यदि आज मैंने युद्ध में तुझे पराजित न किया तो तू मुझे जिनचरणोंका द्रोही समझना ।