Book Title: Madan Parajay
Author(s): Nagdev, Lalbahaddur Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 160
________________ चतुर्थ परिच्छेद * १६ तदुपरान्त मनःपर्ययज्ञान वीर जिनराजके पास आया और उनसे निवेदन करने लगा-भगवन्, अब आप क्या प्रतीक्षा कर रहे हैं ? विवाहका समय पा गया है। अभी आपको क्षीणशक्ति मोहका भी समूल उन्मूलन करना है। जब तक आप मोहका विनाश नहीं करेंगे, आपका मुक्ति कन्याके साथ पाणिग्रहण होना कठिन है। फिर मोह भी साधारण सुभट नहीं है । कहा भी है : ___"जिस प्रकार सेनापतिके नष्ट हो जाने के बाद सेना नष्ट हो जाती है और जड़ कट जानेपर वृक्ष नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार मोह कर्मके नाश हो जानेपर समस्त बाधाएं भी विलीन हो जाती हैं ।" दूसरे मोहके आहत होनेपर काम स्वयमेव भाग जायगा । मनःपर्ययवीरको बात सुनकर जिनराजने कामदेवसे कुछ स्मित के साथ कहा--अरे वराक काम, चल यहा से। मरना क्यों चाहता है ? स्त्री-रूपी गिरि-कन्दरामोंमें जाकर अपने प्राण बचा। अन्यथा तुझे अभी समाप्त किये देता हूँ। जिनराजकी बात सुनकर कामको बड़ा विस्मय हुआ । उसने अपने प्रधानमन्त्री मोहसे इस सम्बन्धमें परामर्श किया तो मोह कहने लगा-इस समय आपको अपनी कुलदेवी दिव्याशिंनी विद्याका स्मरण करना चाहिए। उसीके प्रसादसे आप इस रण-सागरसें पार हो सकेंगे। मोहकी बात कामको जंच गई। उसने ऐसा ही किया और दिव्याशिनी इस प्रकारके वेष में तत्काल पाकर उपस्थित हो गयी: यह दिव्याशिनी वत्तीस द्विज-राक्षसोंसे वेष्टित थी, चण्डीके समान भयङ्कर और तीनों लोकको भक्षण करती हुई-सी प्रतीत हो रही थी । देवेन्द्रको भी केंपा देनेवाली थो । अद्भुत बलशाली, अत्यन्त छलमय और ब्रह्मा आदिसे भी दुर्जय थी।

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