Book Title: Madan Parajay
Author(s): Nagdev, Lalbahaddur Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 161
________________ - - - मदनपराजय इस प्रकार कामके स्मरण करते ही दिव्याशिनी पाकर कामके सामने उपस्थित हो गयी । जैसे ही कामने दिव्याशिनीको अपने सामने उपस्थित देखा, वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और अनेक स्तुतिवचनोंसे उसकी निम्न प्रकार प्रशंसा करने लगा हे देवि, तुमने तीनों लोक जीत लिये हैं। तुम्हारा पराक्रम अचिन्स्य है। तुम मान और अपमान करने में दक्ष हो और तुम असाधारण भुवनेश्वरी विद्या हो । तुम ज्ञानवती हो । शब्दब्रह्म होनेसे ब्राह्मी हो ! और विश्वमें व्याप्त हो। वैष्णवो हो। सर्वभाषामय होनेसे देवमातृका हो । तुम्हारे भोजन करनेपर जगत् पुष्ट रहता है पोर भूखे रहनसे कृश । अतः तुम जगत्की माता हो। तुमसे सत्र को मानन्द मिलता है । निघन्टु. नाटक, छन्द, तर्क और व्याकरण आदि तुम्हीसे उत्पन्न हुए हैं। अतः तुम कुलदेवता हो। तुम अजन्मा हो और पद्मा हो । तुम एक हो और जगत्को प्यारी हो। इस प्रकार कामने जब दिव्याशिनीकी विविध भांति स्तुति की तो वह भी इसके ऊपर प्रसन्न हो गई और कामसे कहने लगी- काम, कहो, तुमने मुझे किस लिए स्मरण किया है ? काम कहने लगा--देवि, जिनराजने हमारी समस्त सेनाका संहार कर डाला है। इसलिए यदि इस समय तुमने मुझे किसी प्रकारसे बचा लिया तो ही मैं जीवित रह सकता हूँ। मेरी प्रारारक्षाका अन्य कोई उपाय मुझ नजर नहीं पा रहा है । अब पापहीकी जयसे मैं जयवाला और पापहीकी पराजयसे मैं पराजित समझा जाऊंगा। जब काम दिव्याशिनीके सामने इस प्रकारसे विनत हुया और दिव्याशनीने उसकी तथोक्त दीनदशा देखी और आतंन्यारणी सुनी तो वह अनेक अभक्ष्य पदार्थोको भखती हुई और मार्गवर्ती अनेक सागर,

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