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द्वितीय परिच्छेद
[ ८७ "जिस तरह वनमें मृग-मांसको खानेवाले सिंह भूखे होने पर भी सृरण महीं खाते हैं उसी प्रकार मापत्तियोंके आनेपर भी फूलीन पुरुष नीच-कर्म नहीं करते हैं। और
__ "जिनका शील और कुल समान कोटिका है उन्हीं में मित्रता और विवाह होता है । लघु और महान्में नहीं ।" तथा
"जिनका द्रव्य, शास्त्राभ्यास और गुण एक-से होते हैं, उनमें ही निश्चय रूपसे मित्रता हो सकती है।"
जिनराज कहते गये - और जो तुमने हरि, हर, ब्रह्मा प्रादिकी कामदेवके द्वारा पराजित होने की बात बतलायी है और जो तुम यह कह रहे हो कि कामदेव मुझे भी पराजित कर डालेगा सो तुम्हें अपनी इस बातपर लज्जित होना चाहिए। उन्हें जीतनेमें कामको कोई बहादुरी नहीं है । फिर, जो बहादुर होते हैं वै भट, नट, भांड और स्तुति-पाठकोंके समान याचना नहीं करते हैं। जब तुम कामको शूरवीरताका इस प्रकार वर्णन करते हो तो वह क्यों रङ्कके समान रत्नोंकी मांग करता है ? इस प्रकारको याचनासे उसे रत्न नहीं मिल सकते।
तुम यह निश्चय कर लो, जो संग्राममें मेरा सत्त्व चूर करके मुझ पराजित करेगा या संसारमें मेरा समानधर्मा है, वही रत्नोंका स्वामी हो सकता है।
अथ च, जिन भोगोंकी और नुमने मुझ ललचाना चाहा है उनको मैंने प्रारम्भमें ही परीक्षा कर ली है। और वे शाश्यतिक भी नहीं हैं।
"मुझ धन पैरकी धूलिके समान मालूम हुआ। यौवन पर्वतसे गिरनेवालो नदीके वेग-जसा प्रतीत हुआ। मानुष्य जलबिन्दुके समान चंचल मोर लोल मालूम हुमा तथा जीवन फेन-जैसा अस्थिर । भोग