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द्वितीय परिच्छेद
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सुखमिच्छसि यावन्मदनबाणभिद्यमानो न भवसि । उक्तच
यतः
" प्रभवति मनसि विवेको विदुषामपि शास्त्रसम्पदस्तावत् । न पतन्ति बाणवर्षा यावच्छ्रीकाम भूपस्य ॥ ७६ ॥ एवं दूतवचनमाकर्ण्य संयमेनोत्थाय द्वयोरर्द्धचन्द्र दवा द्वारा वहिनिष्कासितौ । इति श्रीठक्कुरमा इन्ददेवस्तुत जिन (नाग) देवविरचिते स्मरपराजये सुसंस्कृत बम्धे व्रतविधिसंवादो नाम द्वितीयः परिच्छेदः ॥ २ ॥
* १२ जिनराजकी यह बात सुनकर राग द्वेष बड़े क्रुद्ध हुए और कहने लगे - हे जिनराज, इस प्रकार मुंह चला कर क्या बकवाद कर रहे हो ? महापुरुष कभी भी आत्म-प्रशंसा नहीं करते हैं । फिर जबतक काम तुम्हें अपने बाणोंसे नहीं भेदता है, तभीतक तुम शाश्वतिक सुखकी कल्पना में तन्मय हो रहे हो। कहा भी है:
"विद्वानोंके मन में तभीतक विवेक जागृत रहता है और शास्त्रज्ञान भी तभीतक घमकता है, जबतक उनके ऊपर कामदेवकी बारा वर्षा नहीं होती ।"
दूत इस प्रकार कहकर चुप ही हुए थे कि संगम उठा और दोनों को एक एक चांटा जड़कर दरवाजेसे बाहर कर दिया ।
इस प्रकार ठक्कुर माइन्ददेवके द्वारा प्रशंसित जिन (नाग) देव- विरचित स्मर-पराजयमें दूतविधि-संवाद नामक द्वितीय परिच्छेद सम्पूर्ण हुआ ।