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चतुर्थ परिच्छेद
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सामने उपस्थित हुआ। कहने लगा-स्वामिन्, श्राप देखते-समझते हुए भी पूछ रहे हैं कि जिनराज क्या कह रहा है ? वह कहने लगा
लोग जो “हाथ कंगनको प्रारसो क्या" वाली किंवदन्ती कहते हैं वह इस सम्बन्ध में पूर्णतया लागू हो रही है । यह बात वैसी ही है, जिस प्रकार किसी प्रादमीका कटा हुआ सिर अन्य किसी व्यक्ति के हाथपर रक्खा हो और लोग पूछे कि उस आदमी के हाथमें कितने आघात लगे हैं ?
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और स्वामिन् मेरी यह खुली घोषणा है जिस प्रकार संसार में कोई पुरुष सिर पर वज्रका आघात नहीं झेल सकता, बाहुप्रोंसे अपार समुद्र-तरण नहीं कर सकता, आगपर सुखपूर्वक शयन नहीं कर सकता. विषको ग्रास ग्रास रूपसे भक्षण नहीं कर सकता, संतप्त और पिघले हुए लोहका पान नहीं करसकता, यमराज के प्रालय में प्रवेश नहीं कर सकता, सांप और सिके मुहमें हाथ नहीं डाल सकता, और अपने हाथसे यमराजके महिषके सींग नहीं उखाड़ सकता है उसी प्रकार ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो समर भूमि में जिनराजका सामना कर सके ।
बन्दोकी यह बात सुनकर कामदेव के नेत्र क्रोधसे लाल हो गये । और जिस प्रकार कल्पान्तकाल में समुद्र सीमा तोड़कर आगे निकल जाता है, केतु और शनैश्चर क्रुद्ध हो जाते हैं और अग्निदेव प्रचण्ड हो जाता है उसी प्रकार कामदेव भो जिनराजके साथ युद्ध करनेके लिए चल दिया ।
१. कामदेवने जैसे ही जिनराजपर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान किया, उसे निम्न प्रकारके अपशकुन दिखलायी दिये :
( कोबा सूखे वृक्षपर बैठा हुआ विरस ध्वनि करने लगा । पूर्व दिशा की ओर कविको पक्ति उड़ती हुई दिखलायो दी। और सांप मार्ग काटकर बायीं ओर चला गया ।