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चतुर्थ परिच्छेद
[ १३७ मिथ्यात्व-बीरकी बात सुनकर सम्यक्त्व-बीर कहने लगा-रे नीच, तू क्या कहता है । यदि तुझमें कुछ शक्ति है तो अपना हथियार
संभाल ।
इतना सुनते ही मिथ्यात्व वीरने सम्यक्त्व-वीरके ऊपर तीन मूढतारूपी बाणाक्ली छोड़ी, जिसे सम्यक्त्व-बीरने कुछ प्रायतनरूपी बागोंसे बीचहीमें छेद दिया ।
____ तदनन्तर मिथ्यात्व-वीरने युद्धरूपी प्रचण्ड कोपानलसे दीप्त होकर शङ्का-शक्तिको हाथ में ले लिया और उसे सम्यक्त्व वीरके ऊपर चला दिया।
यह शक्ति वीरश्रीकी वेरिण-रेखाके समान थी। कामदेवके भुजबलसे अपित द्रव्यको रक्षाके लिए सपिणो थी। दुःसह शत्रुराजाओंकी सेनाके भक्षण के लिए कालकी जिह्वा थी। क्रोधाग्निकी कील यो । विजयकी वधू थी और मूर्तिमान मन्त्रसिद्धि मालूम देती पी।
सम्यक्स्व वीरने इस शङ्का-शक्तिको निःशङ्का-शक्तिसे बीचहींमें काट दिया। इसके पश्चात् मिथ्यात्व-वीरने आकांक्षाप्रभूति प्रायुधोंका प्रयोग किया। लेकिन सम्यक्त्व-चोरने इन्हें भी नि:कांक्षाआयुधोंसे निष्क्रिय कर दिया।
इस प्रकार सम्यक्त्व-बीर और मिथ्यात्व-वीरमें परस्पर त्रैलोक्यविजयी युद्ध होनेपर भी किसी एककी भी हार जोक्त न हो सकी।
प्रबको बार सम्यक्त्व-वीरने मन में सोचा - यदि इस मिथ्यात्ववीरके साथ समीचीन युद्धपद्धतिसे युद्ध करता हूँ तो यह नोच दुर्जय होता जायगा। इसलिए अब एक प्रहारसे इसका घात ही कर देना चाहिए। यह सोचकर उसने परम तपरूपी अस्त्रका उसपर प्रहार कर दिया और इस प्रकार मिथ्यात्व-बीर यज्ञोपवीतके प्राकारमें गोलरूपसे