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तृतीय परिच्छेद इस प्रकार यह सैन्य दुष्ट लेश्यारूपी ध्वज-वस्त्रोंसे सघन था। इन ध्वजाओंमें कुकथारूपी उन्नत दण्ड लगे हुए थे, जिनके कारण ये ध्वजाए प्राकाश में प्रान्दोलित होकर दर्शकोंके मन में प्राल्लाद पैदा कर रही थीं। इतना ही नहीं, यह सैन्य जाति-जरा और मरणरूपी स्तम्भोंसे सुशोभित था, पांच मिथ्यादर्शनरूपी पांच प्रकारके शब्दोंसे जगत्को बहरा कर रहा था और दश कामावस्थारूपी छनोंके कारण इसमें सर्वत्र अन्धकार घनीभूत हो रहा था।
कामदेव इस प्रकारके चतुरंग-सेनाके साथ मनोगज पर सवार होकर जिनेन्द्रसे संग्राम करने के लिए जानेवाला हो था कि इतने में तोन मूढ़ता और तीन शङ्कादि वोर राजाओंके साथ संसार-दण्डको हाथ में लेकर अपने जगरवसे तीनों लोकको कंपाता हुआ बलवान् मिथ्यात्व नामका राजा प्राकर उपस्थित हो गया ।
* ३ ततो मिस्मारवनपः प्रोवाच-भो भो त्रिवशकुरङ्गपञ्चानन, फस्योपरि संघलितस्त्वम् ? ममादेशं देहि । किमनेन संन्यमेलनेन ? केवलोऽहं जिनेन्द्र जेष्यामि ।
ततो मोहः प्राह-अरे मिथ्यारव, किमेतंजल्पप्सि ? एवंबिधो बलवान कोऽस्ति यः सङ प्रामे जिनसम्मुखो भवति । तत्प्रभाते तब शूरत्वं ज्ञास्याम्यहं पर दलनाथः सम्यक्त्ववारः प्राप्स्यति । उक्त च यत:
"तावद्गर्जन्ति मण्डूका: कूपमाश्रित्य निर्भयाः । यावन्नाशीविषो धोरः फटाटोपो न दृश्यते ॥४॥ तावद्गर्जन्ति मातङ्गा भिन्ननीलाद्रिसन्निभाः । यावच्छृण्धन्ति नो कर्णैः क्रुध्यत्पञ्चाननस्वरम् ।।५।। तावद्विषप्रभा घोरा यावन्नो गरुडागमः । तावत्तमःप्रभा लोके, यावन्नोदेति भास्करः ॥६॥" .